Friday, November 17, 2017

खुद से मैं अनभिज्ञ बहुत हूँ , मुझसे मेरा बोध करा दो

खुद से मैं अनभिज्ञ बहुत हूँ , मुझसे मेरा बोध करा दो
इस अनन्त दुनिया में मेरी, अपनी इक पहचान दिला दो

जाने कब से चलता आया, लाखों साल हज़ारों काया
पथिक रहा, पर अब है बसना, पता मुझे मेरा बतला दो

अपनी खल-बल में खोया हूँ, भूल चूका मैं बीता सबकुछ
गुज़री बातें छवियों में अब, मनको अंगीकार करा दो

कंवल पंखुरी ओंठो से छू , तृष्णा का अनुमान कराकर
अपने दिन की परछाई की, मुझको तारीखें दिलवा दो

बिम्बों से खुद को जाना है, बिम्बों को अपना माना है
गर आईना टूट गया तो, छवियों को तुम भी बिखरा दो

मिल-लूं-जुड-लूं कैसे फिर मैं, सौ टूटन से बासी हूँ मैं
बीत गयी जो बात गयी है, दिल को ये मेरे समझा दो

पुनर्जन्म के लेन-देन में, बस कर्मों की प्रतिक्रिया हूँ ?
मर कर जीने के उद्देश्यों का अब तो मुझको लेखा दो

सोते ही मैं बुझ जाता हूँ, आकुल मन से जग जाता हूँ ,
समय-काल संघर्षित मैं हूँ , संधिपत्र अबतो लिखवा दो

भोग-विलासी दुनिया है सब, क्या वैरागी बन जाऊँ अब,
कुछ होने से क्या होता है, "ना" होने की, उन्मत्तता दो

गलियों से मंदिर का रस्ता, अड़ते-फंसते, जोगी पहुंचा
कहाँ-कहाँ रहते हो प्रभुवर, कीचड़-दल में फूल खिला दो

कभी मैं शोना कभी मैं बाबू, कभी मैं प्रेमातंकित साधू
कभी प्रणय का काला जादू , कौन हूँ मैं उसको बतला दो

मोड़ पे जब वो मिलने आया, तब मैं उस से मुड़ आया था
मृग-तृष्णा का मोड़ जो मैं हूँ , उसके पार , मुझे पहुंचा दो

पाखण्डी कुछ मैं हूँ, जग कुछ, छूछा खाली बर्तन सब कुछ
मिलूं-जुलूँ अब किससे, किसको दोस्त कहूँ, इतना, बतला दो

तत्वों का अणु-बंधन काया, वो जिसको मैं, मैं कह आया
सच है बस मृग तृष्णा माया, अहम हो तुम इतना दिखला दो

बिम्बित ही बस दिख पाता है, सच बसता दर्पण के पीछे
प्रतिमित को कैसे अपनाऊँ, तोड़ के छवियों को बिखरा दो

रिश्ते जब मैं बो देता हूँ, सबकुछ अपना खो देता हूँ
खो कर कब कुछ मिल जायेगा , थोड़ी तो ढाढ़स बंधवा दो

जीने को मैं जी जाऊँगा, मर कर एक दिन मिट जाऊँगा
सच वो जिसको पाने आया, हस्ताक्षर उसका करवा दो

लौ जो सबको जीवन देती, हर कण को जो रौशन करती
चेतन मन में इस शरीर में, उस लौ से संज्ञान करा दो

नव जीवन पाता हूँ खुद में, अंदर तक जब घुट जाता हूँ
जीव-पुष्प की न्याय-विधा की यात्रा का, कोई नक्शा दो

कोंपल में मुर्झाती दुनिया, पल्लव में फिर खिल आती है
महा चक्र है दुनिया में तम अभ्यन्तर है, दीप जला दो

पत्थर से अब बतियाता हूँ, तरु पत्र में छुप जाता हूँ
तुमसा ही मायावी कवि हूँ, प्रभुवर अब तो अनुचरता दो

सुनो जगत की भीड़ भाड़ में , थामना कब है यह बतलाकर
इन अनजान व्यवस्थाओं में, मेरा मुझो ठौर दिला दो

खो कर ही कुछ मिल पायेगा, पाकर सब कुछ लुट जायेगा
कहो कहाँ है जाना पाकर, इसका भी विस्तार बता दो

कई अचेतन मन की परतों , के अंदर में बसा सनातन
अभिज्ञान स्वय का हो जाये मन में ऐसी ज्योत जला दो



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