Thursday, October 12, 2017

पूरी दोपहर

क्या फ़ायदा है कविता लिखने का
और पढ़ने का,
जीवन में अगर
मेरे पास वक़्त इतना न हो
कि तुम्हारी लिखी कविता को
धीमे-धीमे पढ़ सकूं।
हर हर्फ़ को कमसेकम
दो बार पढूं,
उनकी कड़ियाँ समझूँ ,
उनको ओंठो पे उतरूं
कानों पे दोहराऊं
अनुमान लगा सकूं
उन ठण्डी आहों काजो हर मिसरे पे बही होंगी
और फिर
पूरी दोपहर गुज़ारूं
अल्फ़ाज़ों की झिझक को
तोड़ कर उनके पीछे छुप रहे
आभासों में उतरकर,
गहरी नींद तुम्हारे साथ ही आती है।


~ आनन्द