Monday, July 3, 2017

जानती हो

जानती हो !

वैसे, हमें अब याद नहीं आता
पर गुज़री शाम जब
शिफॉन की शफ़्फ़ाफ़ पशो-पेश
में तुमको देखा था
तब तांत की सूती में ढकी
तुमसे पहली मुलाक़ात
ताज़ा हो आयी थी।

तेज़ क़दम, ख्यालों में उलझे
खादी की सदरी में संभले
हम अपनी तरह के थे ,
खुले बालों में अंगुली लपेटे
कोलापुरी-रफ़्तार समेटे
तुम मेरी तरह की थी।

ऐसा लगा की उस मोड़ पे
एक बोस्तां हमपर से गुज़रा था
कटरा नील के कोने उस सकरी
सड़क पर जैसे ही मुड़ा था।

ग्रीष्म ने बेसुधी पर
अघोषित चढ़ाई की
जब तुम्हारे गेसुओं की नमी
मेरी सांसों में उतर आयी थी।

आज भी जब भाषा मेरे ख्यालों को
सजाने आती है तो
" कहाँ खोये रहते हो " की आवाज़
फिर से गूँज जाती है
हम भी हर मोड़ पर अब
रुक कर गुजरते हैं।

मुमकिन होता नहीं है वर्तमान में
कुछ भी निश्चित बताना
न ही मुनासिब है अतीत को
भूलना या भुलाना।

~ आनन्द
( आनन्द खत्री, सूफ़ी बेनाम )





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