Wednesday, March 1, 2017

सिलवटें गुम हों अगरचे यार तो

मतला:
प्यास में बरसों निभाने पड़ गये
वस्ल के पोखर में कीड़े पड़ गये

तिलमिलाया मैं जो आदम ज़ात तो
रूह से रिश्ते बताने पड़ गये

कोई वादा हमने कब उनको किया
मुस्कराये तो, वो पीछे पड़ गये

फूल से एहसास वो मुस्कान के
मौसमों के बाद हलके पड़ गये

एक अधूरी शाम है कहती सुनो
तेज़ जो दौड़े थे धीमे पड़ गये

जब निहारा प्यास ने बिस्तर मेरा
कह रही थी आप ढ़ीले पड़ गए

टूट कर तकियों ने बस इतना कहा
जान के थे रात लाले पड़ गये

दर्द देने लग गयी थी करवटें
रात को मरहम लगाने पड़ गये

मुस्कराये पेड़ पे दो फूल जो
ज़ुल्फ़ की मइयत चढाने पड़ गये

सिलवटें गुम हों अगरचे यार तो
तुम समझना ख्वाब हलके पड़ गये

साथ देना था तुमारा ज़िन्दगी
पर तेरी ठोकर से छाले पड़ गये

~ सूफ़ी बेनाम

बह्र : 212-221-222-12
अर्कान - फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
बह्र - बहरे रमल मुसद्दस महज़ूफ़
काफ़िया - ए ( स्वर )
रदीफ़ - पड़ गये


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