Tuesday, January 31, 2017

आराइश है यौवन चितवन चित रग-धारा

तुममें मुझको उसकी परछाईं दिखती है
उसकी सौबत में रहती खुशबू कितनी है

जलता दिन है तस्वीरों के छल का मारा
करवट ने चाहत की सुनवाई रखली है

बदला बदला युग जीवन है मौसम सारा
कुछ चहरों पे नयनों की सीढ़ी मिलती है

आराइश है यौवन चितवन चित रग-धारा
ढाढ़स लब-कोशों में निशचित भरती है

तुम क्यों बीते बीते हो आओ संग बैठो
मद पुररौनक आँचल से अबतक छलकी है

कह दो की मिथ्या है ये मेरी जीवनधारा
सच के कोरेपन में भरपाई असली है।
~ सूफ़ी बेनाम

(2x12)












~ सूफ़ी बेनाम

Saturday, January 21, 2017

देवता बरहमन ज़ात वाले सभी

वस्ल लब पे सजा बेखुदी के लिए
रात बेताब थी उस नमी के लिए

देवता बरहमन ज़ात वाले सभी
इश्क़ के अर्श में इक सदी के लिए

दिलशिकन आशना हमसुख़न रह गुज़र
प्यार कर ज़िन्दगी है इसी के लिए

तीरगी बेसुधी हुस्न आगोश हो
लाज़मी ये रहा सादगी के लिए

कमसिना दर्द देता है आवारगी
ख्वाब टूटा मगर रौशनी के लिए

मुद्दई आशिक़ी हुस्न के बुलबुले
कारवां बेखबर आदमी के लिए

ले शिकायत चलें हसरतें प्यार में
सूफ़ियत है नहीं नाज़नी के लिए

~ सूफ़ी बेनाम 




वज़्न - 212 212 212 212

Wednesday, January 18, 2017

हमें माथे की वो बिन्दी बनाकर

वज़्न - 1222 1222 122
अर्कान - मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फऊलुन
बह्र - बह्रे हज़ज मुसद्दस महज़ूफ़
काफ़िया - आना
रदीफ़ - जानता है

मतला :
सदा पागल ज़माना जानता है
मुहब्बत की हक़ीक़त जानता है

ज़रा अंगुली को तुम बंदी बना लो
खुली ज़ुल्फें फसाना जानता है

हमें माथे की वो बिन्दी बनाकर
रस्म दिल की निभाना जानता है

निशानी शीर पे बनता नहीं जब
बना झुमका झुलाना जानता है

हमें खोंसा रहा उसने कमर में
वो अंगुली से नचाना जानता है

कभी बिछिया सजी पायल पहनकर
ग़ुलामी भी कराना जानता है

हमें मंज़ूर है उसकी हिरासत
जो हमको गुनगुनाना जानता है

~ सूफ़ी बेनाम



जिस्म है प्यास से लदी रिक़्क़त

वज़्न 2122--1212—22 / (112)
अर्कान-- फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन
काफ़िया— आ
रदीफ़ --- देना

ज़िन्दगी की हमें दुआ देना
हो सकेगा हमें भुला देना ?

आस टूटी नहीं कभी तुम से
मत करीबी का मरहला देना

ढूंढ कर रोज़ की ख़ुशी हम में
प्यार को प्यार की सज़ा देना

जिस्म है प्यास से लदी रिक़्क़त
खुरदुरापन मेरा मिटा देना

नाज़ से तिशनयी बदन पर लब
रात का सिलसिला बना देना

जब भी मिलना हमें तो नौ बनकर
ज़िन्दगी शौक से अदा देना।

~ सूफ़ी बेनाम


Tuesday, January 17, 2017

अंगुलियाँ

इन्तेज़ारी सदी के बाद
हवा में है आवाज़ तुम्हारी
जिस्म की खरखराहट
उम्र को रेशमी कर गयी है
ग़ज़ल लब से नहीं
अँगुलियों से बोलती है
हकीकत की बेयक़ीनी में
हमने भी कान
अपनी हथेलियों पे ले रक्खे हैं
आवाज़ें, कवितायेँ और 
वस्ल
नाखूनों के कुरेदने से
मेरी लकीरों की गलियों में
घर ढूँढ़ते हैं
चाय की चुस्कियाँ जो घुल गयी थीं
नर्मदा की लहरों में
आज दिल्ली में धूप बन कर
बोलती हैं
तुम वो साया हो कि जिसके सच में
मेरी बेनामी के झूठ
पनपने लगे हैं
फिर से कौंधना
अलफ़ाज़ बनकर।

~ सूफ़ी बेनाम 







Sunday, January 15, 2017

निगाह -ए-कलम से हमें अब तराशो

हमारी अदीब शायरा पूजा कनुप्रिया जी के मिसरे में गिरह दे कर ग़ज़ल की कोशिश
122 122 122 122
अरकान,,
फ़ऊलुन, फ़ऊलुन ,फ़ऊलुन , फ़ऊलुन
काफ़िया.... ख़तावार(आर )
रदीफ. = तुम भी

गिरह:
शराफत बनी रात में वो क़यामत
ख़तावार मैं भी, ख़तावार तुम भी

मतला:
इरादे वस्ल के खतवार तुम भी
न चाहत न सिलवट हो क्या यार तुम भी

जला दो मिटा दो ज़रा आग देकर
ये मुर्दा खलिश है औऱ आसार तुम भी

चिपकने लगी गर्द ख्वाइश से आँखें
जला सा हूँ मैं और अंगार तुम भी

ये समझो फ़िज़ा में गुज़रता समय है
बिता कर ग़ुज़ारो हो दरकार तुम भी

निगाह -ए-कलम से हमें अब तराशो
गुनाह -ए-मोहब्बत के फनकार तुम भी

अइंदा किसी दौर में तुम न मिलना
अगर हो नहीं आज रुखसार तुम भी

~ सूफ़ी बेनाम