Wednesday, November 30, 2016

हर कश-ए-राख पालता है मुझे


वज़्न - 2122 1212 22 / 112
अर्कान - फाइलातुन मुफ़ाईलुन फैलुन
बह्र - बह्रे खफी़फ मुसद्दस मख्बून
काफ़िया - अता
रदीफ़ - है मुझे

बेकल उत्साही साहब का एक शेर है :
"होने देता नही उदास कभी
क्या कहूँ कितना चाहता है मुझे"

उसके सानी मिसरे पे गिरह देते हुए ग़ज़ल में उतरने की कोशिश :

गिरह :
जल गया दो कशों की ज़हमत पर
क्या कहूँ कितना चाहता है मुझेै

मतला :
ज़िक्र उसका इरादता है मुझे
आदते-ए-शौक़ मारता है मुझे

साँस की दो खलिश पे ज़िन्दा जो
आशिया का नशा अता है मुझे

ग़र्क़ ख्वाइश, धुंआ नसीबों का
ऐश-टरों में बिखेरता है मुझे

चाहतें कुछ सुलगती हैं अक्सर
हर कश-ए-राख पालता है मुझे

मयकशां यार की सुहूलत हूँ
बेतकल्लुफ़ क्यूँ मानता है मुझे !

जो रिहा है धुओं के छल्लों में
हमसुख़न साज़ मानता है मुझे

सिगरटें चाय की दुकानों पर
गुज़रता वक़्त जानता है मुझे

गर्त कोई हवा की भर कर वो
लब-नशीनी से साधता है मुझे

शायरा-शौक और बेनामी !
बदहवास खूब खींचता है मुझे

~ सूफ़ी बेनाम



Friday, November 25, 2016

थोड़ा गोलाई से

चट्टान को चट्टान की 
नोकीली पेचीदा
चढ़ाई पर धकेलना
वैसे ही है जैसे
ढलती हुई उम्र में
मोहब्बत निभाना 
और जैसे
सांसों के दरमियाँ ज़िंदा से
ज़िन्दगी समझना समझाना।

चट्टान को चट्टान की
चढ़ाई पर धकेलना
संभव है मगर 
आलिम कहते है
थोड़ा गोलाई से 
हौले-हौले।

~ सूफ़ी बेनाम


Thursday, November 17, 2016

कौन समझे ये काफ़िरी क्या है

वज़्न - 2122 1212 22 / 112
अर्कान - फाइलातुन मुफ़ाईलुन फैलुन
बह्र - बह्रे खफी़फ मुसद्दस मख्बून
काफ़िया - ई ( स्वर ); रदीफ़ - क्या है
मिसरा....
"हमसे पूछो कि खुदकुशी क्या है"

गिरह :
महज़ सांसों में ज़िन्दगी क्या है
हम से पूछो कि खुदकुशी क्या है

मतला :
हसरतें इस कदर दबी क्या है
दिल न टूटा तो आदमी क्या है

ख़्याल की ख़्याल पर मीनारें सौ
अब पता क्या कि आखिरी क्या है

काफिये काम अब नहीं आते
बे-बहर नज़्म फिर सजी क्या है

फूस की छत तले जो ज़िन्दा थे
उनसे पूछो कि मौसकी क्या है

शायरी काम हैं अदीबों का
कौन समझे ये काफ़िरी क्या है

नफ़रतें दासतां बनी अक्सर
इश्क़ में खोई ज़िन्दगी क्या है

कोई तिनका हवा से पूछे तो
आज फिर सज के वो चली क्या है

ग़र्क़ चाहत पे और नफ़रत पे
कौन जाने ये मुद्दयी क्या है

फैसले इस तरह बढ़ायेंगे
आसमाँ और ये ज़मी क्या है

आज बेनाम को नहीं रोको
खुद समझने दो दिल्लगी क्या है

~ सूफ़ी बेनाम