Thursday, September 29, 2016

सांस के पिंजर फंसे हर आशना एहसान से

डॉ शैलेंद्र उपाध्याय का एक शेर है :

लाख दुश्वारी सही, हर साँस में इक दर्द है
जी रहे हैं लोग फिर भी जिंदगी ये शान से

वज़्न - 2122 2122 2122 212
अर्कान - फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन

काफ़िया - आन
रदीफ़ - से
इसमें गिरह दे कर ग़ज़ल में उतरने की एक कोशिश :

गिरह :
टूटता हर मोड़ पे है देख हसरत का फितूर
जी रहे हैं लोग फिर भी जिंदगी ये शान से

मतला :
आज उम्मीदें जगीं हैं हर किसी अनजान से
सांस के पिंजर फंसे हर आशना एहसान से

अश्क़ भीगी रात का चहरा छुपा ले जायेंगे
रश्क़ क्यों इतना करें इक बेज़ुबाँ अरमान से

दिल जले फिर से मिलेंगे उम्र के उस मोड़ पर
इश्क़ को मज़हब बताने हुस्न की पहचान से

कोई ज़िन्दा तो बटोरे स्वपन के आशार को
टूटते हर रोज़ हैं ये हर किसी इंसान से

फलसफा मिलता नहीं अब साथ देने के लिये
सैकड़ों बेनाम मजलिस याद के फरमान से

~ सूफ़ी बेनाम


Wednesday, September 28, 2016

बीज कई परतों में दबाया हुआ है

अब सस्य के समूचेपन को समझो
बीज कई परतों में दबाया हुआ है


रस लदे यौवन का सौंधा-पन उड़ेले
सूखती शाखों पे फल छाया हुआ है


एक प्रकार को सजी बाहरी बनावट
उत्तेजना से उम्र भर ज़ाया हुआ है


बढ़ता आ गया फसल का मौसम
फलों ने दरख़्त को झुकाया हुआ है


न वृक्ष-डाल, न पात-साधना फल
वृक्ष ने नाम फल का पाया हुआ है

चेतना के अनु-कण बीज-धारण
जड़ों का फैलावा माया हुआ है


अब सस्य के समूचेपन को समझो
बीज कई परतों में दबाया हुआ है


सृष्टि में पैदा हुए कई  बेनाम जंगल
तर्क-औचित्य का फल आया हुआ है
~ सूफ़ी बेनाम





Friday, September 23, 2016

कर्म की बही में लिखी संवेदनायें

मेरे अन्तर्मन की निस्तब्धता
बाहरी व्याकुलता के नंगेपन को
अपने मखमली एहसास से
इस तरह ढक जाती है
जैसे खुले ज़ख्म पे भिनकती मखियों से
किसी लोबान्त का उपचार लगाती हैं।

मुसलसल कर्म की बही में लिखी संवेदनायें
आभासों को निस्तब्धता के
उस पार से, धरणी दबी आर सी सी की
राफ्ट फाउंडेशन के भीतर निहित
सत्य की सरिया को टोर से मज़बूत बनाकर
हर होनी हर घटना कर्म को पूर्वनिहित बनाती हैं।

प्रज्ज्वला मस्तिष्क के ठीक भीतर
एक स्थल से प्रफुल्लित हो कर
रीड़ की हड्डियों की इडा-पिंगला को झंकृत कर
सूक्ष्म अणु-निहित चेतनाओं को करके उजागर
कुछ नए दर्पणों को खोलती माया बस
मन-बदन-चेतन-चैतन्य के पात्र बदलती है।


~ सूफ़ी बेनाम



कदम अब बेवफा हैं इस कदर पर

अख़्तर होशियारपुरी का एक शेर है :

परिन्दों से रफ़ाक़त हो गई है
सफर की मुझको आदत हो गई है


इनके सानी मिसरे से गिरह दे कर ग़ज़ल में आगे बहने की कोशिश कर रहा हूँ :


कदम अब बेवफा हैं इस कदर पर
सफर की मुझको आदत हो गई है

मिली है धूल राहों में हमेशा
समुन्दर की वसीयत हो गयी है

फटी एड़ी लहू तर हैं ये धीगें
सफर दिल शौक नफ़रत हो गयी है

कि शायद दौर ऐसा था नहीं पर
नशेमन में बगावत हो गयी है

दबे मोती नदी नाले मिले पर
लहर खार -ए-हकीकत हो गयी है

सहर पर लालिमा फिर से चढ़ी जब
दिनों में कैद ग़फ़लत हो गयी है

रहे कुछ दोस्त बे परवाह से ही
दिल -ए-बेनाम हरकत हो गयी है


~ सूफ़ी बेनाम


Thursday, September 22, 2016

तकिये

कहो !
क्या निस्तब्धता को
आदित्य की अवर्तमानता को
क्या नींद को उकेरने-उभारने ही को
ये रातें बनी हैं ?


कहो !

क्यों कच्ची गरदनों टेकने को,
ख़्वाबों की टूटी श्रृंखला दबाने को
पाहु-पाश के रत्यात्मक एहसासों को
तकियों की ज़रुरत पड़ने लगी है ?



कहो !
बदलकर कब हाड़-मॉस की मुड़ी हुई कोहनियां को
जीवांत पेड़ों के लट्ठों, ईटों चट्टानों को
सूती दायरों में कैद मखमल और कपास के अम्बारों ने
शयन कक्ष में एक तकियायी हासिल की है ?


शायद
विलासता और सुख साधना में धंसकर
मनुष्य जीवी प्राणी उस स्तर पे पहुंचा है कि
समय सारिणी से जीवन बिताता है तकियों पे सोता है
स्वप्न-दर्शी संभावनों को झूठा बताता है।


~ सूफ़ी बेनाम


Sunday, September 18, 2016

सीले तौलियों में सौंधापन पसीने का

सीले तौलियों में सौंधापन पसीने का
कागज़ अपना कोरापन छोड़ कर
हम-सुखन हर्फ़ों से गहरा हुआ
हज़ार बातें सुन कर ब्लैक-बेरी
मोबाइल फ़ोन बहरा हुआ ,
फाइल से झांकते टैग लगी पुर्जियां कागज़,
संतुलित एक सूक्ष्म-शून्य ठहरा हुआ,
बिखरी किताबें, स्पाइरल गुदे ड्राफ्ट्स,
येलो-स्ट्रिप्स पे लिखे काम,
लोगों के नाम,
हज़ार भूलें, गलतियां, नुक्ते , अंगुलियां,
लैपटॉप, प्रिंटर, पेन , पेंसिल, पब्लिशर,
गिफ्ट मिला मफ़लर, अनामिका-तर,
मल्टीविटामिन, त्रिफला,
थालियां, बोतलें, बैग,ज़मीं बिछा गद्दा,
चद्दर , ए.सी., तकिया,
स्टडी की छत से गलतियों को घेरकर
छलांग लगते 2B पेंसिल के एरोस चुभोकर,
री -सायकिलड पेपर्स की गड्डियां
फटे लिफाफों पे लिखी चिट्ठियां,
ब्लड रिपोर्ट्स और जिम में बातें
घण्टों की लाल सफ़ारी ,
सौंदर्य लहरी,
सच तले रुन्दते बेहिसाब झूठों की सिसकियाँ
काक चष्टा, झूठी थालियां,
सब सिमट गए 177 पन्नों के कूचे में बेलगाम
पोइसिस सफ़र पहला कदम बेनाम।


~ सूफ़ी बेनाम





Thursday, September 15, 2016

अस्ल की दूर तक उड़ाने हैं

मतला :
फिर नहीं लौट कभी पायेंगे
पल अगर बीतने दो आयेंगे


नोच निकले अगर सुबह कोई
रात इकसीर हम बनायेंगे


महफिलों में ग़ज़ब अकेलापन
हम नवां रोज़ मिल न पायेंगे


कल तलक इश्क़ के बहाने थे
मुश्क अब किस तरह निभायेंगे


रूज की शाम बज़्म बोसों की
साँस को किस तरह बुझायेंगे


अस्ल है रूह में छुपा गाफिल
बुत बदन तुझसे मिलने आयेंगे


प्यास को इस तरह नफ़ी मत कर
लत-तलब बन हमी सतायेंगे


अस्ल की दूर तक उड़ाने हैं
हम सुखन लिख फलक सजायेंगे


~ सूफ़ी बेनाम

( 2122-1212-22 )



Monday, September 12, 2016

अब वक़्त आ गया है

इस शहर की परत दर-परत उधेड़नी पड़ेगी
घेराबंदी करनी होगी गलियों, बाज़ारों, कूंचों की
कुछ दूर निकल के आना पड़ेगा ज़िन्दगी से
तब क़त्ल-दफ़न, दोस्ती की लाशें मिलेंगी।


ज़मी को ताकते दरख्तों पे लटकते सस्य के
जीन-कोड की बारीकी से जांच करने के लिये
नोच के निकलना होगा छिलके और गूदे को
तब कहीं सुप्त-असल के क्षुद्र बीज मिलेंगे।


विदित नहीं होगा कभी सिर्फ़ सूर्य की रौशनी से
अस्ल, जो जीव आवर्ती पुनरुथान से उलझा हुआ है
मूंद-आखों को वृत्तियों में अहम् का हवन कर
मधु-स्थल में हाथ डालना होगा पीड़ा के चर्म को छूने के लिये ।


अब वक़्त आ गया है।


~ सूफ़ी बेनाम



कवि एकाकी जीव है

कवि एकाकी जीव है,
पटल पर कुछ लोगों का मिलना
दोस्ती हो जाना
सब अनायास था, खुद बा खुद होता गया।
शुरू में उनके अल्फ़ाज़ों की कुलबुलाहट
उनके जस्बातों के दर्पण ....
लगने लगा की सबमें
मैं ही हूँ।
खुद को उनमें देखते-देखते
वाह-वाह करते एक लम्बा अरसा गुज़ारा हमने
कोई मुझे अपने छंदों से बाइस साल का महसूस करवाता
कोई ग्रीष्ममयी जीवन-व्यथा की प्यास मुस्कुराकर बुझाता।
फिर क्या था
ग़ज़ल का दौर चला
छंदों को बहर में बाँधा
और हर ख्याल को मन कानन के अँधेरे में भींच कर कलम किया।
लिखने की हवस बढ़ती रही
मेरे भीतर के इंसान को ढक कर
शायद मैं भी कवि सा हो गया
शायद कहीं कागज़ पे खो गया।
पर आज जगा हूँ
तो खुद को समेटना मुमकिन नहीं है
कुछ हूँ साथ अपने
कुछ दोस्ती में बाँट आया हूँ।

फिर एकाकी हो गया हूँ।


~ सूफ़ी बेनाम



Tuesday, September 6, 2016

मकरंद

जो ख़्याल
ठौर-बदन ढूँढ़ते थे
बे-नब्ज़ बेनाम
किताबों में
अपना इमान रखने लगे।


क्यों कागजों ने सोख  ली
वो स्याही
जो बहकर
पत्तियों में रंग भारती ?
बदकिस्मत !
अल्फ़ाज़ों की गिरह को
सच समझ बैठी।


~ सूफ़ी बेनाम