Sunday, July 24, 2016

ग़ज़ल के फ़ासले पर हैं परेशां

1222-1222-122

हसीं दिल की इनायत और क्या है
मुसाफिर की निस्बत और क्या है

खुदी में रह नहीं सकता परिंदा
खुलेपन की शरारत और क्या है

कफ़स की आड़ में जीना है आसां
बगावत की नसीहत और क्या है

सफ़ीने काठ के होते सभी हैं
लहर की अब ज़िल्लत और क्या है

हिफाज़त को हमारी आ गये गम
बहर गहरी नहीं तो और क्या है

हक्वीकत बन सके तो शाम गुज़रे
अंधेरों की ज़रुरत और क्या है

ग़ज़ल के फ़ासले पर हैं परेशां
कहो बेनाम को लत और क्या है

~ सूफ़ी बेनाम


बहर - ocean, ज़िल्लत - insult, नसीहत - advice, निस्बत - relation / connection




Thursday, July 14, 2016

हे भुजंग-व्यंगकार !

हे देव !
हे सृष्टि में रेंगते हुए
हाड़मांस और सांसों में कुंडलित
मौत के उत्प्रेतक नीतिकार

हे सहज, शिथिल, निर्जीव
प्रतीत होने वाले
स्वर्णमय चर्म में जागृत
कवितामय अंत के रचनाकार

हे सांसों के बल पर
जीव को मंत्र-मोहित कर
बाहु पाश में भरकर समूचा
निगल ध्वंस कर पृथ्वी की जीव ऊर्जा के प्रतिकार

हे जकडाव की कैद को
माँ की कोख, गोद, पालने का वेग
सपनों की गिरफ्त, प्रियसी आलिंगन का कसाव
दारुण कर्तव्यों से मौत के चित्रकार

हे स्वर्ग के दूत
निगलना तो समूचा निगलना मुझे
देखना है आँख खोल कर मौत-तंत्री को फिर भीतर से
अधरों सा मोहक-रासयनिक गुलाबी रंग का नया उदगार
हे भुजंग-व्यंगकार !


~ सूफ़ी बेनाम