Monday, May 23, 2016

क्यों न पत्थर को उछाला जाए

बह्र: 2122 1122 22 (112)

जब तलक दिल पे निशां आ जाए
महफिलों को न सजाया जाए

गम ज़दा हम न रहे एक पल भी
पल को फिर ख़ास बनाया जाए

छेड़ना और नहीं इस दिल को
प्यार का दौर कहीं आ जाए

रात कुछ और गुज़र जाए तो
आग से आग बुझाया जाए

तू रहा खास सभी बातों में
क्यों न हमराज़ बनाया जाए

देख नाकाम रही किसमत भी
क्यों न पत्थर को उछाला जाए

जुल्फ-ए-तहरीर लिखी होती है
ध्यान से पढ़ के बताया जाए

ख्वाब में जिन्दे कई मिलते है
आह इनको न लगाया जाए

~ सूफ़ी बेनाम


सागर

सूक्ष्म की सतह धरे
लहर का विकार है
अंतः अलंकार पर
रतनों का अम्बार है

नौ पर मुझसे मिलना
सतही मुलाक़ात है
अनगिनित जन्तुओं का
कोख में फुलवार है

अनसुनी ताज़गी लेकर
डूबी नदियां अथार हैं
कहते सागर मुझको
इंसान सा आकर है


~ सूफ़ी बेनाम
नौ - boat.


Sunday, May 22, 2016

फलक तक गुमशुदा राहों में यूं ही

1222-1222-122
उलझ कर रह गया ख्यालों में यूं ही
गुंथा था जाने क्यों बालों में यूं ही

शहादत बन चुकी है उसकी चाहत
बड़ी तकलीफ है तारों में यूं ही

कभी तो गिनतियां दीवानो में हो
रहेंगे गुमशुदा यादों में यूं ही

नतीजा बन सकोगे मेरी किस्मत
बसे दिन रात की साँसों में यूं ही

वफ़ा है दिल जलाने का तरीका
सुनो मेरी रज़ा आहों में यूं ही

इनायत बन गयी है तेरी चाहत
सुलगती किस्मतें बाहों में यूं ही

नशा अब बन गया दिल का बवंडर
बहा हूँ शौक से प्यालों में यूं ही

रहा तेरी रिज़ा का ही भरोसा
लगा था इस तरह सालों में यूं ही

ज़रा हमको जगह दो आसमां में
फलक तक गुमशुदा राहों में यूं ही

बहुत सी रौनकें उस पार हैं पर
चलो तो घूम लें खारों में यूं ही

ज़माना देखता कब दिल के आँसू
जिगर तो बन्द था वादों में यूं ही

बहुत संगीन हैं यारी की शर्तें
रहेंगे मौन दीवारों में यूं ही

~ सूफ़ी बेनाम


आवाज़ भी न रेंगी


बुनकर बन गया दिल-जीवन इक ख्याल में
रंगरेज़ निगाहें बेसूद रंग सजाती फलक में
लिखते लिखते अँगुलियों में छाले पड़ गए
औ आवाज़ भी न रेंगी आशिक़-ए-दयार में


~ सूफ़ी बेनाम


देर सवेर

अचरज नहीं तुम बदल गये हो
सारी-बातें मीठे-वादे भी बिसरे हो
देर सवेर भीनी सी यादें में आकर
दिल छूकर भावमय कर देते हो


~ सूफ़ी बेनाम 

Wednesday, May 18, 2016

उमर का अब असर नहीं होता

साथ तेरा कसर नहीं होता
इत्मिना कोइ भर नहीं होता

हम न  चाहें तुमें अगर बन कर
ख्वाइशों का कहर नहीं होता

आबिला पाँव की पहेली थे
दिल से मीलों सफर नहीं होता

हसरतों को ये शौक चहरों का
उमर का अब असर नहीं होता

राह बेउम्र सी मिली अबतक
दासतां का महर नहीं होता

एक नज़्म सी शक़्ल सवालों की
अब कहो की कहर नहीं होता

फिर कभी देर तक मिलेंगे हम
इश्क़ भी हर पहर नहीं होता

साफ़ कह दो कि बंद हैं आंखें
ठोकरें दर बदर नहीं होता

फिर किसी चाँद का सहारा है
रात का अब असर नहीं होता

हम पे स्याही से दाग लगते हैं 
लब पे नेमत कसर नहीं होता


गिरह:
दिन को देखें औ रात फिर सपने
हमसे इतना सफ़र नहीं होता

~ सूफ़ी बेनाम


बह्र :2122 1212 22 (112)
आबिला - boils / blisters , महर - favour



ताज महल

नदी का किनारा
चार बुर्ज,
बीच में गुम्बज,
चढ़ी हुई चौकी
फैले बागान
संग-मरमर की वर्क़
महोब्बत का मकान।

कहो कैसे
खुले खलिहान
पर्वत, नदियां, झरने
सूखे पत्ते, धूप
सूरज चाँद
सेंध लगे मेरे दिल
के निशान
अरमान।

~ सूफ़ी बेनाम



Sunday, May 15, 2016

रहो न रह पाओ तुम कज़ा तक

आइना बस अब तेरी खुशी है
तभी तो किस्मत पुकारती है

कभी कठिन है कभी है आसां
ग़ज़ल की फ़ितरत नयी नयी है

रहो न रह पाओ तुम कज़ा तक
हमें तलातुम सी तिश्नगी है

शबाब ज़ीनत करीब आओ
कि बाढ़ चढ़ती नदी मिली है

तुमारे सहलाब का मैं आशिक़
डुबा जो तुममे तो शायरी है

लबों पे ज्वारा बहक उठा क्यों
पुरानी आदत ये ज़िन्दगी है

~ सूफ़ी बेनाम


Friday, May 13, 2016

जल तरंग

खालीपन पे चोट करें तो
दर्द की वीणा बजती है

खली बर्तन में भी सजते
संगीत की बेला बसती है

अपने अपने खालीपन को
कुछ तो लय में बेहने दो

कर्मों की बही साधने
कलाकार की लाठी बजती है

निःस्तभता में किसी की
अधूरेपन की कविता है

आधे प्यालों की कोरों पे
एक पीर की गूँज बसती है

सुनने वालों सुन के देखो
हम भी रहते खाली हैं

धरती के जल तरंग में देखो
नदी नाले दरिया प्याली हैं


~ सूफी बेनाम




ज़रा आसरा दो दीवाना बना कर

122 -  122 - 122 - 122

कभी तो कहो की कहाँ जा रहे हो
हमें भी बता दो जहाँ जा रहे हो

वफ़ा और मंज़िल इशारा बनी हैं
न जाने सफर ले कहाँ जा रहे हो

ज़रा आसरा दो दीवाना बना कर
जुनूं बेकदर ले कहाँ जा रहे हो

खिसकना अगर है करीबा-भी जाओ
सरकते सरकते कहाँ जा रहे हो

लिखा नाम हमने गुमाँ से मोहब्बत
मिटाते लुटाते कहाँ जा रहे हो

बेनामी बनेगी दिलों की शिकायत
ले आवारगी अब कहाँ जा रहे हो।

~ सूफ़ी बेनाम


यहाँ अधिकार के रिश्ते तो लाइसेंस मिलते हैं

1222-1222-1222-1222

गिरह :
सभी हैं शर्मसारा-ए-गुमां हो ग़र्क़ महफ़िल में
सुना है क्या कि पर्दों में इशारे खुद बिखरते हैं

मतला:
कभी टायर कभी मंज़िल सवारी भी बदलते हैं
सभी सुलझे हुए उस्ताद टपनी से ही बचते हैं

सड़क पर टायरों के घिसटने से पड़ गये ठप्पे
अदब भी तेज़ कारों के जुनूं के किस्से बुनते हैं

कभी रफ़्तार उलझाती रही मासूम चाहत को
कहीं पर ब्रेक के बेफ़िक़्र से बिगड़े उछलते हैं

खबर रखते हैं सडकों पर सभी के आने जाने की
मसाफत में ज़मी औ आसमां भी नपते दिखते हैं

रुकोगे गर कहीं तुम बेवजह, संभलने को ज़रा भी
नियम बिगड़ा बड़ा है ये यहाँ चालान कटते हैं

बिना अभ्यास के इस दौर में कोई नहीं चलता
यहाँ अधिकार के रिश्ते तो लाइसेंस मिलते हैं

गुनाह -ए-कार ही होता इसे पेट्रोल ना भरते
सज़ा हैं दूरियां भी इसलिए नक़्शे भी मिलते हैं

बड़ी गति से निकलते हैं डगर पे लौह के पैकर
सफर बेनाम चलते हादसे होते ही रहते हैं।

~ सूफ़ी बेनाम

मसाफत - distance , space , days  journey; टपनी - stepney
( tired of writing on Love , Pain and Passion I have used the imagery of car for some play of feelings and to establish the strange correlation with life.)


Tuesday, May 10, 2016

पंखों को सुलझाकर थोड़ा सिमटो मुझसे प्यार करो

डूबी शामों के साये अब शाखों पे चढ़ बैठे है
सूने हैं अब जंगल सारी बातों का विस्तार करो

आहिस्ता से आकर डाली को अपने पंजों से कसकर
पंखों को सुलझाकर थोड़ा सिमटो  मुझसे प्यार करो

चंचु चंचु छेड़ो फिर से कलरव क्रुंदन कोलाहल में तुम
रातों की गहरी चुप्पी को रोको तो इकरार करो

आकाशों के आगोश रहकर क्या मंज़र भर लाये
धरती पे दाने बिखरे क्यों उड़े अब विस्तार करो

देखो कैसा ढलता सूरज बहका बहका दिखता है
अम्बर की मदहोशी को ओढ़ो डैने खुमार करो

~ सूफ़ी बेनाम


Sunday, May 8, 2016

शकील की दुकान

शकील की दुकान पे
गाड़ी गाड़ी बनवाने का अनुभव
बड़े गराज से सर्विस
कराने वाले क्या समझें

रोड साइड का फुटपाथ
और वहां  की गर्द और ईंट पे
डीजल द्रव्य-पान किये
अक्षम्य असभ्य निशान. ..!!
डीज़ल, ग्रीस, तेल मिटटी
के वास से ,गले फटे लंक-लाट
के कपड़े की किरमिच सी
पुरानी वर्दियां ओढ़े,
नाखून की सनखियों तक
गुदी कालिख संभाले..
सलीम , छोटू , मुन्ना, सागर,  मोंगली
के चेहरो पे मुस्कान रोकती काली रोग़न...
रदनक से फाड़ते ढक्कन ,
ओंठों पे पेचकस, मुँह में पेंच,
हाथ में औज़ार समेटे
गत्ते पे सरकते गाड़ी के भीतर.....
होड़ ,धर्म ,प्रतिस्पर्धा,
फैशन ,दिखावा ,मोहबत से दूर
उत्तरजीविता की एक दुनिया
जिसमें सिर्फ दिन होते हैं और दिहाडियां

कैसे समझ पायेंगे
ऊँचे गराज मे
अपनी मँहगी
आयतित कारो की सर्विसिंग करवाते
ऊँचे लोग...

~ सूफ़ी बेनाम




रदनक - canine teeth, उत्तरजीविता - survival, रोग़न  - grease/lubricant ,






अमलतास


जलती धूप में जब सूने घर को लौटता हूँ
एक खिले हुए अमलतास को देखता हूँ
निस्तब्ध रहता लू में आग के अंगूरों सा
उसकी तासीर की शिद्दत से शिकस्ता हूँ

~ सूफ़ी बेनाम






Saturday, May 7, 2016

विलादत


आओ इन बिछड़े सिरों को जोड़ के देखें
ज़िन्दा रात को और सोये हुए दिन को देखें
विलादत दरमियान थे जो किससे अपने ही
उस जश्न को माँ की पहचान दे कर के देखें
कभी चेहरों में कभी फ़िज़ा में ढूँढ़ते हैं तुमे
आओ तुमारी उम्र में अब बचपना भी देखें
कभी कभी थकने लगता हूँ तुम्हारी बातों से
रुको ज़रा तुमारी बहु में बच्चों की माँ देखें।

सूफ़ी बेनाम

( विलादत - birth)



Friday, May 6, 2016

खाता अब तो पुराना कर लो

अधरों की  तूफानी रातें
सपनों को पैमाना कर लो

हम में अपना साया भर के
शामों को दीवाना कर लो

माना तुम कुछ छोटे हो पर
सीने को सिरहाना कर लो

आँखों की भीगी परतों पर
काजल से भरमाना कर लो

भटका दर -दर सूना सपना
खाता अब तो पुराना कर लो

रिश्तों में अब कुछ रस भर के
आहों को सालाना कर लो

बातें छोटी छोटी दिल की
प्यारा सा याराना कर लो

खाली पीली की ये बातें
छूंछा बरतन पाना कर लो

भरना हो गर खाली मन को
दिल को फिर वीराना कर लो

दीवानी कुछ रातें लेकर
प्यासा मन पहचाना कर लो

कुछ कहना हो तो कह लो तुम
मत जीवन को बेगाना कर लो

~ सूफ़ी बेनाम


Thursday, May 5, 2016

धरातल मिलेगा कहो अब किधर से

धरातल मिलेगा कहो अब किधर से
कहीं रोक लो अब हमें इस लहर से

चलो डूब जायें तुमी में कहीं पे
न उबरें न उड़ जाएं और न ही बरसे

चलो चश्म जादां उधेड़े तुमी को
कही तो मिलेंगे फिर हम सफर से

ये लाली ये नदिया ये सावन सुनो ना
असर देखना है उसी की नज़र से

उसे लग रहा था कि छेड़ा उसी को
सफर हाय कैसा रहा उस के डर से

~ सूफ़ी बेनाम



ख्यालों के जंगल

रात अपने ख्यालों के
जंगल में जाना
कभी तो
रास्ते किनारे
झील पे झुके पेड़ से
एक शरारत तोड़ लाना

फ़र्द में अधूरी
मिसरों के विलय में उलझी
ग़ज़ल की डालियों में चंद
हर्फों के
कांटे बिखरे पड़े हैं

पाँव  की कोरें में
चुभ गए अगर राज़ दोस्ती के
तो यादों की छाल से रिसते द्रव्य की
दो बूँद छुआना
और आगे बढ़ते जाना

याद है
वो पिछले साल
जब बारिश ज़्यादा हुई थी
और दो शामें चट्टानों पर
नंगे पैर दौड़ पड़ी थीं
वो सब तुमने एक रूमाल पे
काढ ली थीं

आज  उसी
रूमाल का एक कोना
वक्त पर काम आया है मेरे
प्यार भी इंसान को कितना सिखाता है
दोस्ती का सफर रूमान हो
तो दूर तक जाता है

~ सूफी बेनाम


फ़र्द - sheet of paper/spread sheet.



( picture courtesy : Vivek Banerjee) 

Tuesday, May 3, 2016

पूर्वनियत संसार

प्रेम-रस उदगार का कोई धरातल
ढूंढने पे भी नहीं मिलता जगत को
मूँद आँखें सूने मन मधु-कोष भरता
चैन की दो सांसों से  दुश्वार दो पल
रूक सको कुछ देर तो बैठो यहीं पर
देख लो नर्गिस का ये विजन-वैभव
सांस लेते उद्यान में खोये हुए क्षण
आह भरती तितलियों के रंगीन पर
साथ को चट्टान का ही ठौर रखलो
सोच को खोये हुए मन का सहारा
प्यार है नहीं अभिशाप समझो
दर्द भरी बहती कश्ती को किनारा
बीत चुके है दिन औ ये मास भी अब
प्रारब्ध गुदे रास्ते समय दिखारा
पूर्वनियत संसार को है रोज़ जीता
खोल कवि,  कविता का पिटारा  
~ सूफ़ी बेनाम


Sunday, May 1, 2016

सह भागिता गुलज़ार ~ तुमसे बात नहीं होती किसी दिन

तुमसे बात नहीं होती किसी दिन
तो आँखें मलते उठ धीरे से
दिन खामोश छूछे बर्तन को
रख अंदाज़ पानी से भरता हूँ

दो प्याली कट-चाय छान कर
बारी-बारी चुस्की लेता हूँ
चष्क झेंपता रहता हमसे यूं
जितने सिप लेता अपने प्याले से
उतना तुम-प्याले की कोर को चूमा करता हूँ

आना रात फिर ढल के ख़्वाबों में
 इजाबत  का सपना मीठा सा
रात फिर तकिए पे  सांसें पी लेना
कहना "कहो कैसे हो यार"

~ सूफ़ी बेनाम



हाथ थामे ये सफर कट जायेगा

बह्र 2122 2122 212

गिरह देखिये :
जब किसी  महफ़िल गुमाँ आजायेगा
पत्थरों को और भी पथरायेगा

मतला:
भीड़ में रस्ता तभी मिल पायेगा
हाथ थामे ये सफर कट जायेगा

आफताबों से झुलस कर शाम तक
दिल किसी भी चाह पे सरमाएगा

आ सको तो आ भी जाओ सनम
काफिला रूमान से लद जाएगा

उस गली या इस गली में प्यार की
आप का एक दिन पता मिल जायेगा

अब तड़प रहती नहीं है यार की
मजलिसों से काम चल ही जायेगा

दिल जवानी और आशीकी स डर
बा खुदा मौसम बहारें लाएगा

~ सूफ़ी बेनाम

सरमाया - property/ ownership .