Wednesday, March 30, 2016

प्यास और तिश्नगी बाकी रहे

हो खलिश गुज़िश्ता में हमेशा
चाह आइन्दा की पहुँच बढ़ाती रहे
तिश्नगी बने दिन का मुकद्दर मेरे
अधूरापन मुलाकातों में बाकी रहे
ज़िन्दगी के रास्तों में छुपी किस्मत
फलक की शोखियाँ बढाती रहे
जियूं और जी के मरूँ भी अधूरा
बुस्तान यादों की तुझे भी सताती रहे
मोहब्बत में लिखे हैं नाम कैस-लैला
किताबत में हमारा ज़िक्र बाकी रहे
ख्यालों का मंज़र चीर पहुँचूँ तुम तक
तमन्ना जान-ए-लम्स की जलाती रहे
हमें मालूम है अधूरापन है ज़िन्दगी
खोज सांसों की हमेशा लिबासी रहे
खुदा ही बताये हैं फलक को फिरदौस
हूरों की खोज हमारी भी जिहादी रहे

~ सूफ़ी बेनाम

Friday, March 4, 2016

चलते हैं हम तुम पे अब भी रास्तों

चाह थी बेनाम मेरी रास्तों
ज़ख्म ज़िन्दा के निशां पे रास्तों

शुक्र कर कि दौर जंगल के खड़े
चलते हैं हम तुम पे अब भी रास्तों

इब्तिदा फिर शौक गर तेरी बने
धीग में तुम फाँस करना रास्तों

रुकना ना नहीं मंज़िलें हैं वारिसां
उनसे है छू कर गुज़ारना रास्तों

राह गुज़र ख़ाक में तेरी मिले
हमको न शौक करना रास्तों

अजनबी जब दोस्तियां करने लगे
वो हसीं फिर मोड़ लाना रास्तों
~ सूफी बेनाम


है बहुत शौकीन दिल मेरा सुनो

गिरह:
है बहुत शौकीन दिल मेरा सुनो
मुस्कुरा दो अब ज़रा सा धड़कनो

मतला :
ऐब होती है हकीक़त दोस्तों
झूठ के किस्से हज़ारो दोस्तों

मैं अगर दो झूठ कह दूँ प्यार से
तुम उन्हें सच समझना दोस्तों

प्यार की दो कीमतों का दौर है
तुम अपना मोल रखना दोस्तों

रात जो किस्से अधूरे बेरहम
ख्वाब है अब ये उजाले दोस्तों

आज हम भवरों से सीखें ज़रा
गुल के राज़ समझना दोस्तों


मतला :
दिल को तुम ज़ख्म देना दोस्तों
उनको अपना नाम देना दोस्तों

आज पानी में लगी फिर आग है
आज हमसे दूर रहना दोस्तों

तीर बन कर जिस्म में मेरे सनम
धड़कनों की हद्द बनना दोस्तों

कोई गीतों को लिखेगा प्यार से
ज़िन्दगी का ये सबब था दोस्तों

जिस्त जिनका हो रहा था नम कहीं
अब नहीं तड़पेंगे शायद दोस्तों

ज़ख्म चाहे दो हमें फिर प्यार से
दूर से खिलवाड़ करना दोस्तों

शाम का मिसरा ज़रा रूमान था
रात तक ले कर गया था दोस्तों

पलट कर जो आ गये हो आज भी
प्यार मत दुश्नाम करना दोस्तों

बुत समझे ना मेरी बेनामियां
कुछ तो सरगर्मियां हो दोस्तों
~ सूफी बेनाम




Thursday, March 3, 2016

शायरों के गरीब खाने में

ढूँढ़ते रह गये फ़साने में
नफ़रतें हो गयीं भुलाने में

रात हर रोज़ की हकीक़त है
दिन की आरज़ू बुझाने में

कोई ज़िन्दा यहाँ गरीबी में
कोई ख्यालों के कैद खाने में

रोज़ प्याले कतार बंधते हैं
शायरों के गरीब खाने में

राह में लोग रोज़ मिलते हैं
रुकते हैं रास्ते बताने में

सांस हर हर्फ़ हर ग़ज़ल तेरी
चाह हकीक़त के कारखाने में

चाह को वो गुनाह कहते थे
कुछ तो कहने के बहाने में

आप से वासता नहीं मेरा
एक गरीबी रही ज़माने में
~ सूफ़ी बेनाम