Thursday, September 17, 2015

गुज़र-नामा

कुछ उम्र गुज़र गयी थी इंसा की
कुछ ख़्वाब-ए-ताबीर को बाकी थी

है ज़र कुछ भी नहीं अहले-जहाँ
हर मौज लौट कर के टकराती थी

छाप इंसा की इंसान पर पड़ती यहाँ
नये नामों  से  रौश  दोहराती थी

इंसा बसर-गुज़र रहे बस उम्र में
तस्वीरें साथ देने को, दो बाकी थी

सायों के नाम ले कर गुज़र-नामा
शायरी हक़-ए-गुज़र बन आयी थी।
~ सूफी बेनाम




बदल-ओ-अस्ल हो आवारा जैसे

ना-मुक़ाम कर गये बंजारा जैसे
बदल-ओ-अस्ल हो आवारा जैसे

हकीकत-ए-अब्दल हो रही रवाँ  
शिफ़ा-ए-याद हो सहारा जैसे

अथक सांसें सुना रही दास्तां
रिश्ता-ए-ज़रुरत हो गंवारा जैसे

खुश्क ओंठों का बढ़ रहा रूमान
आब-ए-चश्म ही हो किनारा जैसे

लम्हा-ए-उलझन सांसें गुमां  
उल्फ़त-ए-महक अंगारा जैसे

जिस्म-बेकाबू दीद-ए-याद जवाँ  
भँवर-ए-अख़्तर कहीं शरारा जैसे

निगाह-ए-तलाश  आफ़त  मेहरबाँ
ज़िक्र-ए-बेनाम, बेज़ुबाँ नज़ारा कैसे
~ सूफी बेनाम




Saturday, September 5, 2015

पैराहन

क्या रिज़ा
कि देखूं अलग इसे
या रह पाऊं
संग इसके कभी।
बे-परछाई
अधूरा जीवन
सीरत में छुपा
अज्ञात अहम।
झलक ज़रुरत
महज़
शक्ल औ बदन
उसकी ।
तन्हाई से
उभारता
किसी सम्भावना का
उदगार शब्दों में।
किसी स्याही से
बह गुजरने को
बेक़रार
एक डूबा चेहरा ।
शायद किसी
समय की तलहटी का
सूफी
उभरता है मुझमे
पहर दो-पहर।
बेनाम बसेरा
पैराहन मेरा।

 ~ सूफी बेनाम


इसलिये

ये कहानी ख़त्म
एक सफर में हो जायेगी
इसलिये बेचैन हूँ मैं
पहुंचना मुनासिब नहीं
किसी के लिये
इसलिये अधीर हूँ मैं
तुम भी गुज़र जाओगे
कुछ देर रुक कर के
इसलिये बेकरार हूँ मैं
समय बदलेगा नहीं
उसूल बदगुमानी में
इसलिये दोस्त हूँ मैं।
~ सूफी


जाना था अगर

तुम को' जाना था' अगर हाथ मिला कर जाते
अपनी क़ायनात का मन्सूर*  बता कर जाते।

मैं कोई साया नहीं कि खिंचा आता तुमसे
ज़िन्दगी का थोड़ा रूमान निभा कर जाते।

अजनबियों की तरह मिलने से दूरियां बेहतर
पर अपनी इबादत का मक़सूद बता कर जाते।

ज़िन्दगी को ज़रुरत नहीं किसी हिस्सेदार की
तुम जाते तो गुज़िश्ता का बटवारा कर जाते।

कोई खुदा मिला नहीं दास्ताँ-ए-मोहब्बात को
एक सबक़ आखरी इंसानियत का समझ कर जाते।

है दस्त-ए-शिफ़ा हर बदलाव में ज़िंदा इंसान
जाते तो हर तज़-ए-लम्स  सूली चढ़ा कर जाते।

~ सूफी बेनाम



मन्सूर - Sufi Saint who believed he was GOD , रूमान - romance

उबल कर नादां

 उबल कर नादां खुद ही से उफन जाते हैं
आतिश-ए-तक़दीर के नज़ीर रह जाते हैं।

मदार-ए-हकीक़त रह गया रूह का जुनूँ भी
बदन में ज़िंदा हैं और बदन में मर जाते हैं।

पुराने हो कर के दोस्ताना-ए-मौसम सभी
अपनी-अपनी गिरह में सिमट जाते हैं।

शिकस्ता हो कर के वीराना-ए-आलम भी
अपनी हदों के पार शहरों में बदल जाते हैं।

रिश्ते जो ओढ़ रक्खे थे खुद के लिये कभी
उन्स-ए-लम्स को बे-सलाह छोड़ जाते हैं।

होश रहता नहीं कि बदलती तारीखें भी
ना-दानिश खाई में ले के फिसल जाते हैं।

~ सूफी बेनाम

मदार - orbit , उन्स - friend , lover. दानिश - known ,  नज़ीर - example