Saturday, August 29, 2015

किस्से का कहानी तक आना हुआ

किस्से  का कहानी तक आना हुआ
अल्फ़ाज़ों में एक शहर बसाना हुआ।

कोई नया बहाना  दे ऐ ज़िन्दगी
मोहब्बात का मतला पुराना हुआ।

बुलबुला जो सफर-ए-दीवानगी  था
कागज़ पे सूख के शिनासा हुआ।

मात्राओं की गिरफ़्त में एक किस्सा
ग़ज़ल तक पहुँचते अंजना हुआ।

सूद-ओ-ज़ियाँ का बचा कोई हिसाब
 या डायरी का रद्दी में जल जाना हुआ।

हमने मिन्नतें अल्फ़ाज़ों से की बहुत
ढूंढ़ना उन्ही रास्तों को बेईमाना हुआ

सूद मिसरों में बंधी एक ग़ज़ल मिली
असल को गुज़िश्ता-ए-यार भूलना हुआ।
~ सूफी बेनाम


कभी कभी की मुलाकातें

मेरे कुछ दोस्त जो
दो-चार साल में
मिलने चले आते हैं,
बहुत तकनीक से
लड़कपन में उतार ले जाते हैं।
दो पल में २०-२५ साल का सफर
पार कर लेते हैं और
चलते चले जाते हैं।
पर शायद और जवानी
किसी को रोक नहीं पाती,
कोई संभालता नहीं है,
कोई उम्रदार हो जाता है।
मुलाकात कुछ घंटों की
पोशीदा मुस्कराहटों में ग़ुज़र करती है
और उसी में छिटक जाती है।
बातों में किस्से  हर बार नये होते हैं
कोई कुरेदता है, कुछ  नया पंगा लेता है।
पर सीख हर एक यही ले के घर जाता है
शिफ़ा  तजुर्बों का, हर एक
अपने बचपन को ढूंढ़ लाता है ।
~ सूफी बेनाम


Wednesday, August 19, 2015

शादी की पच्चीसवीं सालगिरह

चुप बैठे एक कमरे के कोने-किनारे मौन हैं
पच्चीसवीं सालगिरह पे रिश्ते ये प्यारे मौन हैं।

दर्द -ए-मोहब्बात से हर शिकायत कर चुके
गुजरने का अंदाज़ देखो जिस्म हमारे मौन हैं।

हर उलझन पे अटकते हुए कहीं उतरे थे हम
गिरह खुल चुकी फिर भी सपने सरे मौन हैं।

आज पैसा है ईंधन  है गाड़ी की मनमौजी का
रास्ते सब मौन हैं, मनसूबे तुम्हारे मौन हैं।

पसंद नहीं मुझे इन कागज़ों पे लिखना तुम्हारा
आज जितना भी लिखो पर  सितारे मौन हैं।

चुप बैठे एक कमरे के कोने-किनारे मौन हैं
पच्चीसवीं सालगिरह पे रिश्ते ये प्यारे मौन हैं।

~ सूफी बेनाम



घिसे हुए खांचों

बचपन नासमझ रहा
ढूंढ़ता रहा जवानी को
जवानी बेताब रही
पिघल  चुकी थी किसी  में
एक बरसात से मोहब्बात तक के रास्ते
और वहा से दर्द का सफर
एक रिश्ता हज़ार सपने,
सब सीखे सिखाये हुए
बच्चों की तरह पढ़ाती रही ज़िन्दगी
पहचान  को बेताब मेरा दंभ
हर मुनासिब सहारा
ढूंढ़ता रहा।
आज मेरी कविता भी
इंसानी अधूरेपन को
वही पुराने रास्ते
ढूंढ़ती है।
इन घिसे हुए खांचों से अलग
कुछ नया चाहता हूँ।

~ सूफी बेनाम



चेतना

ढूंढ़ता है गुज़रते हुए जिस्त का साथी क्यों ?
फिसलती हुई उम्मीद फिर चली आयी क्यों ?

चेतना दर्द की नहीं उम्मीदों की चुभती  है
बात इतनी सी मेरे समझ न आयी क्यों ?

माना, गुज़ारना मिजाज़ मुलाकातों का है
मेरी अधेड़ी में छुपने तेरी शाम आयी क्यों ?

स्पर्श एक मिसरे का लब पे  महसूस हुआ
पर याद किसी और वक़्त की आयी क्यों ?

उम्र की ढलान के रास्ते तेज़-चुस्त-साफ़ हैं
फिर अटकती है मेरे साथ तेरी परछाई क्यों ?

जिस समझ की दाद रही दुनिया अब तक
उसको इतनी नासमझी रास आयी क्यों ?

~ सूफी बेनाम




Wednesday, August 12, 2015

निसर्ग

एक कमज़ोर, थकी हुई
निढ़ाल ग़ज़ल के वक्ष पर
कुछ अक्षर, अल्फ़ाज़ मात्राएँ
चिपके हुए थे।
निसर्ग था
कि गोदते थे उसके स्तन
अपने
नये पैनिले दाँतों से।
वेग से कूद कर
कुछ पीछे जाते
फिर नोचते थे उसे
कुछ बूँद दूध या खूं के लिये बूखे थे ।
वो उठी, आगे बड़ी पर
कुछ दूर कूद कर रूक गयी थी
अपनी वृति से मूह मोड़ना
कुछ कठिन था।
हर अल्फ़ाज़ को जगह देती
जोड़ती, उनका पेट भारती चलती ये ग़ज़ल
अब कमज़ोर दिखती है मुझे
बे-मायने हो चली वो खूंखार ग़ज़ल ।
~ सूफी बेनाम


लहरें

क्यों गहराई से उभर आयीं थी लहरें कभी
क्या किसी सीने-किनारे टूटना ज़रूरी था।

गहनता रहती क्यों नहीं सतह पे शांत कभी
सुप्त-व्याकुलता को सतह पे उफनना ज़रूरी था।

नंगे पाँव चुन लाया था सीप का टुकड़ा तभी
सूखी चादर को सहलाब का तकाज़ा ज़रूरी था।

हाथों को खरे पानी का लम्स याद रहा फिरभी
तेरी ज़ुल्फ़ों से कुछ छीटों का बरसना ज़रूरी था।

मैं तेरी गहराई में बेनाम न रह पाया कभी
शायद चेहरों और लहरों से मिलना ज़रूरी था।

~ सूफी बेनाम


Monday, August 10, 2015

तेरी नज़्म

जब तेरी नज़्म को शमा की आग से रिझाने गया। 
मेरी परछाईं से एक बेदार मिसरा महक सा गया। 

कुछ लम्स खोजता लौ का दमकता किनारा रहा 
गुज़रती रात में तेरे एहसास का ज़िक्र बढ़ता गया। 

तुम मिली कहीं पे बेकस, मात्राओं में अल्फ़ाज़ों में 
या वक़्त रहते तुमको पढ़ने का सलीका आ गया। 

बेनाम तेरा छुपना शमा-ए-बज़्म में मुमकिन  नहीं 
मिलता हर झपक रौशनी को अंधेरों का सहारा गया। 
~ सूफी बेनाम 



Sunday, August 9, 2015

बेसाध

ज़रा कुछ देर और बसर जाने दे मुझे
एक किस्सा बन के मिलने आऊंगा।

गर ग़ज़ल के सिरे पे अटकी मेरी सांसें
तो दुसरे पे तेरा नाम उभर के आयेगा।

वो शेर जो दिक्कत तेरे लम्हों को हैं
उनको  बुनने  में मुद्दावा भरमायेगा ।

हैं वाकिया कई  जिनका ज़िक्र नहीं
तू  पढ़ेगा कभी तो शायद समझ पायेगा।

उलझनों की यातनायें क्या काम थीं
इसपर वो तन्हा डुबो के जायेगा ।

कुछ देर इस तन्हाई ने सताया मुझे
कुछ रुस्वा तेरा जीस्त तड़पायेगा।

कभी तू मेरी आँखों में उत्तर के तो देखो
एक अंगार की भसक को  छू जायेगा।

एक दिन बेफिक्र-आज़ाद परवाना कोई
तुझसे मिलने मेरी रज़ा बन के आयेगा।

तब शायद मेरी तलब का कोई आंसू
इस कदर लिपटकर उस पे बह जायेगा।

तुम समझ लोगे लम्हों का दर्द बेहतर
मुझपर शायद एक पन्ना पलट जायेगा।

कोई दिलासा रिश्तों में रोकता था मुझे
कोई मिसरा तुझे आज़ाद कर दिखलायेगा ।

~ सूफी बेनाम





बल्लीमारान

गली जो ख़्वाब शायरों के बसाती रही
एक सदी में बाज़ार-ए-चश्म हो गयी ।
~ सूफी बेनाम



Hain aur bhee duniya mein sukhanwar bohot achche
Kehte hain ki ‘Ghalib’ ka hai andaaz-e-bayaan aur
Ballimaran ke mahalle ki wo ………
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Isee be-noor andheri see gali qaasim se
Ek tarteeb chiragon kee shuru hoti hai
Ek quran-e-sukhan ka safa khulta hai
Asadallah Khan Ghalib ka pata milta hai.

गली-ए-ख़्वाब, शायर का घर कहीं
सदा-ए-इम्तेहाँ, बसे बाज़ार यहीं ।

अल्फ़ाज़-ए-कल्ब था जला बल्ली-मारां
किताबी रह गये उसके आशार  यहीं।

शर बदलती है गली-ए-क़ासिम शौक से
ऐ वक़्त कुछ उगे थे अल्फ़ाज़ यहीं।

ज़िक्र जहाँ उसका बिकता रह गया
बेनाम अब्र घसीट लाये गुलज़ार यहीं।

~ सूफी बेनाम