Friday, May 29, 2015

शायरों के अल्फाज़

इन मिसरों की अदा कोई क्या समझे
मैने कागज़ पे दिल को पिघलते देखा है
कुछ मीर-औ-ग़ालिब जो हैं नहीं अब यहाँ,
उनके अल्फ़ाज़ों को खुद से सँभालते देखा है।

बड़े बेगैरत हैं यहाँ आज  के लिखने वाले
कच्चे रास्तों पे खेलते हैं नादाँ बच्चे
कुछ को मंसूबा है ज़िन्दगी उलझाने का
कुछ के अल्फ़ाज़ों को ताबीत पे चलते देखा है।


चाहे ढका रहा वो नज़्म की ज़री बूटियों में
चाहे आह किसी की उभरती जरकन में थी
किसी का दर्द पहुंचा तो उसके कानों तक
बरहाल वो बेरुख ही रहा, तो क्या हुआ ?

ऐ हुस्न-ए-फ़िज़ा  तू भी गुदी है यहाँ
किसी दिन की हसीं याद की खलिश बनकर
किसी की नब्ज़, नुक़्ता-रेज़ी में अभी बाकी है
कुछ शर्मसार हैं किसी की आरज़ू बनकर।

इन मिसरों की अदा कोई क्या समझे
मैने कागज़ पे दिल को पिघलते देखा है
साथ इंसान से बेहतर देते हैं मतले कई
कई मसले मक़्ता फिर कुरेद जाते हैं।

~ सूफी बेनाम




Sunday, May 24, 2015

बावक़्त बदलाव

हर बर्क़-ए-उजाला, चिराग बुझा दिया करो
सिर्फ रातों को इंतज़ार की सज़ा काफी है।

हर लम्हा ना याद, उन इत्तेफ़ाक़ को करो
मौसम को याद-ए-बारिश की सज़ा काफ़ी है।

लिख-लिख के न यूं कागज़ को कुरेदा करो
जज़बात को बारहा इज़हार की सज़ा काफी है।

अल्फाज़ो को बे-इस्बात सहारा ही देते रहो
दीन को एक इत्तेफ़ाक़ी दीदार की सज़ा काफी है।

लुटे रास्तों पे दोस्त, नामाबर कई बेनाम रहे
रिश्तों को बावक़्त बदलने की सज़ा काफी है।

~ सूफी बेनाम

नामाबर - messenger ; बर्क़ - lightening ; बर्क़-ए-उजाला - used for morning; बारहा - repeated; बावक़्त - in time ; बे-इस्बात - unconfirmed ; इत्तेफ़ाक़ी - occasional, by chance .




Wednesday, May 13, 2015

आम बातें

खुद में
दोबारा जागा था
रौशनी लदी सुबह
फिर हो आयी है।

कुतुबखाने की सारी किताबें
छोटे बड़े शब्दकोश
सबने अपनी जगह
वापस अलमारी में  ढूंढ ली है।

कागज़-ज़दा अधूरे मिसरे
टूटे मरोड़े टुकड़े
ज़मीन पे बिखरे हैं
ज़िद्दी बच्चों की तरह।

कोरी किताबों के बेज़ार पन्ने
अनकही बातों का बोझ लेकर
फटकर-छितरकर बहाले-खसतः
दूर रुआंसे से पड़े हैँ ।

शायद डस्टबिन में
जगह मिल जाएगी
उन आम अधूरी बातो को
जो कविता कभी न बन पायीं।

~ सूफी बेनाम





Tuesday, May 12, 2015

अल्फ़ाज़ों का बदन

शिगुफ्ता  बदन की साँसों के
इतना करीब होना एक शिफ़ा है।

सलीक़ा तेरी अंगुलिओं में
हकीक़त की अदा से ज़्यादा है।

फिर -फिर तेरी दानिश कथनी ने,
अल्फ़ाज़ों का बदन टटोला है।

जब नींद लदी, तेरी आँखों से
मेरी किताब का आँचल छूटा था।

जिल्द पे लिखे मेरे नाम में भी
शोखी उम्मीद से जागी थी।

कुछ सांस भर ली थी मैने भी
एक रूहानी बदली छायी थी।
~ सूफी बेनाम




शिगुफ्ता - flourishing, blooming; शिफ़ा - healing; दानिश - wise ; शोखी - sauciness, naughtiness.

Saturday, May 9, 2015

आज हो जाने दो कागज़ी तारिख मेरी

रोश उतना ही होगा दिल का सवाब
जितना उमीदों के शहर जल निकलें।
आज हो जाने दो कागज़ी तारिख मेरी
शायद किसी शोख लबों से बह निकलें।
या तो शादाब होगा हालात -ए -नियात
या तग़ाफ़ुल को कोई खबर निकले।
है दिल्लगी गर नीयत शोख़ मेरे माशूक की
नहीं तो तहे जिल्द में सिमट निकलें।

~ सूफी बेनाम



नियात - desire ; तग़ाफ़ुल - ignorance; शादाब -bliss; रोश - रोशन - illuminate;
शोख - playful ; खबर - attention ; सवाब - re-compensation; शोख़ - saucy  

Friday, May 1, 2015

ऐ अफ़रोज़ा

ऐ अफ़रोज़ा !
तेरे हर आलम,
हरकत-शरारत के ज़ेरे हिरासत
वो जवानी का फितूर
जो हर जुम्बिश
हर शक्ल-औ-अदा में
बेसब्र उफनता था
कहीं अपने शर्मीले बचपन को
बदमस्त बदन की तहों में
दबा सा गया था;
वो रिश्ता दर रिश्ता
जूझता-जीतता, बढ़ता-बदलता
उस मंज़िल पे ले आया जहाँ
पीछे मुड़ के कुछ देर
देखना भी मुमकिन न था,
जब तू
औरत बन के खिली-बिखरी
तासीर-ए-खुशबू की तरह,
और तेरे जिस्म के
नूर -ए-नक़्श    
किसी मुकाम पे जा कर
खुद को उस अक्स से तोलते रहे
जहाँ से उभर के तू आयी थी,
तेरे उस बदलाव-ए-सफर
उस बाहरी रंग-ए-इश्क़ का
चाहने वाला भी
अब नज़र कमज़ोर कर बैठा है।

तेरे जिस्ता-ए-कुण्ड की खुशबू
अब उन रगों की हिरासत है
जो अपनी रवानी में तेरी जवानी को
बदन की तहों में दबा सी गयी हैं।

हर उस याद को
जिस्म-ए-रेगिस में ढूंढने को,
मुक़म्मल करने को ,
तेरे बदन पर कुछ सांसें लिये
सूँगता टटोलता, करीब आता है
और उन पोशीदा चौबारों में
छिप जाना चाहता है।

तेरा हम-मुसाफिर
शायद अपनी जवानी
तुझमें खो देना चाहता है।

~ सूफी बेनाम