Sunday, December 27, 2015

ग़ज़लों में जज़्ब छुपते नहीं हैं हर किसी से


शब्दों के पायाब में डूबते नहीं हैं हर किसी से
ग़ज़लों में जज़्ब छुपते नहीं हैं हर किसी से

मिसरों से बेहतर रहता इंसा का नेक इरादा
मुस्कान उभरती नहीं दिल से अब हर किसी से

ज़ेर-ओ-बाम को है उसने फिर रूज से जलाया
रुखसार हो गये हैं कीमिया उसकी ही हंसी से

बूंदों की छनक से हैं तलब आसमा बरस-ते
शफ़क़-ए-चमक से है ज़र-ए-ज़ेवर अब किसी से

तेरी रंग-ओ-बू में बसर है मेरी तलब के किस्से
हर ख्वाब था बसाया तेरी ज़ुल्फ़ की नादिरी से

बेनाम इस सिलाह की बेचैनीयाँ  तो समझो
ग़ज़ल में नहीं मिलते मक़सद हर किसी से
~ सूफी बेनाम



पायाब – ankle deep water, ज़ेर--बाम – low and deep sound, रूज – rouge, कीमिया – alchemy, रुखसार – cheek , शफ़क़--चमक – evening twilight, ज़र--ज़ेवर – golden jewellery, नादिर – priceless. 

Friday, December 25, 2015

जब गुज़िश्ता से मिलने चले आयेंगे

कुछ जब गुज़िश्ता से  मिलने चले आयेंगे
तब शायद आइन्दा को गुज़रा हुआ पायेंगे

ग़ैर-मुतव्वल हो जाएँगी पहचानें पुरानी
लम्हे ज़िंदादिली के बेखुदी तलक सुलगायेंगे

मेरा खोया है अक्स कोई खोई तस्वीर क्या
किसी जनाज़े तेरे कान में फुसफुसा जायेंगे

एक ग़ज़ल जिसपे होने लगे थे बदनाम हम
बे रदीफ़ ही सही काफ़िया की आन निभायेंगे

समझो कि आतिश-ए-परछाई है हर वाक़ियाँ
फलक-ए-शरार को तहज़ीब-ए-रक्स सिखायेंगे

मुड़ के देखोगे कभी इस बार मिलने के बाद
उम्मीद को रिश्तों की  बेनाम शक्ल दिखायेंगे

~ सूफी बेनाम

ग़ैर-मुतव्वल - strange delay of payments or debts, गुज़िश्ता - past, आतिश-ए-परछाई - shadows caused by fire, फलक-ए-शरार - heaven's flash or gleams, तहज़ीब-ए-रक्स - manners of dance.

Thursday, December 24, 2015

खस औ किमाम से इकरार लिख देना

बेइन्तहां इंसा पे फिर इंसा का इकरार लिख देना
कैसी रिवायत कि रिश्तों से अधिकार लिख देना

अकेले  दिनों में मक़सद को कई नाम मिलते हैं
हाल-ए-ज़र्फ़ हो मंज़ूर तो दिल गद्दार लिख देना

तेरे नाम की रौनक से यहाँ बदनाम हैं कुछ लोग
गर हो ऐतराज़ हवाओं पे तुम इनकार लिख देना

ख्यालों के दायरों से न तुम समझना शायरी मेरी
ये बे-आब हसरत इनको दर्द-ए-पतवार लिख देना

लिखोगे दास्तां मेरी मुसलसल अंदाज़ की खातिर
दोपहर फिर खस औ किमाम से इकरार लिख देना

बकाया रह गया होगा गर दोस्ती में कोई मुक़ाम
इस बेनाम हसरत को लब-ए-गुलज़ार लिख देना

~ सूफी बेनाम

हाल-ए-ज़र्फ़ -  feeling capable, बे-आब - without water  used as in without a flow, दर्द-ए-पतवार - oar of pain, मुसलसल - successive, linked, लब-ए-गुलज़ार - bloom of lips as in a smile.


Can be sung as  मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता

किसी के गम का कारण हम न बने

गीत नहीं मैं जिसे लब गुनगुनाते हैं
सरगम-ए-साज़ हूँ जिसे दिल बसाते हैं

आतिश छेड़ते हैं जब सूने लफ्ज़ कहीं
अक्सर ही सिर्फ मेरा दिल जलाते हैं

ज़िन्दगी पल दो पल की दूरी तो नहीं
मुड़ के देखना मुमकिन नहीं पाते हैं

मुनासिब नहीं दिलों में आँच उठती रहे
कुछ हसरतों के तूफ़ान डुबोते जाते हैं

किसी के गम का कारण हम न बने
क्यों  सोचने को  सिर्फ़ अहबाब रह जाते हैं

~ सूफी बेनाम

साज़ - musical instrument, आतिश - fire, अहबाब - lovers / friends.


Can be sung as आईने के सौ टुकड़े करके हमने देखे है...

Tuesday, December 22, 2015

प्याले मिट्टी थे ऐ कुम्हार-ए खुदा

ना मोहब्बात में रहते तुम्हारे ख़ुदा
ना ही इंसा को मिलते हमारे खुदा

रश्क़ इंसा को इंसा से इस-कदर रही
कि सूझा नहीं कैसे गुज़ारे खुदा

रईसों की नख़वत में उतनी ही थी
जितनी गरीबी असीरी बसारे खुदा

तेरे दिल के दरीचे पे  टूटे सनम
प्याले मिट्टी थे ऐ कुम्हार-ए खुदा

मेरे कदमों में नश्तर कई मंज़िलें
ज़िक्र तेरा है राहों पे वाह रे खुदा

क़ातिल तेरी तक़सीर में क्या क्या रहा
सच है देखो खुदी को मिटाते खुदा
~ सूफी बेनाम


रश्क़ - envy/ hatred, नख़वत - haughtiness/ pride, असीरी - imprisonment/ captivity, नश्तर - lancet/ trocar, तक़सीर  - sin/ crime.



Can be sung as हाल क्या है दिलों का न पूछो सनम

मैं इस डगर की भूल हूँ चाहत-तों का सिरा नहीं

मैं इस डगर की भूल हूँ चाहत-तों का सिरा नहीं
किसी से न कहना सखी कि क्यों तेरा हुआ नहीं

मेरी उमंग औ लालसा गर रिश्त-तों की भूल थी
मैं इंसानों की भीड़ में क्यों किसी का आसरा नहीं

हर इक निगाह पे टिकी रही आस जो ख्वाब की
कुछ हकीकत-तों की साज़िशें हैं ये कोई दुआ नहीं

हालाँकि जिगर की रेत पर कई नाम धुल गये
कान्हां से पूछूंगा सखी क्यों राज़ तेरा दबा नहीं

तू याद-दाश्त भूल सा या ज़मीर का मलाल था
क्यों मुझसे रूठ कर मेरा दिल कभी मिला नहीं

तेरी शिकायतें आदतें हैं मेरे बदन  की चाहतें
तस्बीह की कड़ी से हम वकियों का शिफ़ा नहीं

जिक्र था हर नाम पे  बेनामी का सिरा सजा यहाँ
इंसा से अलग मुझे क्यों कभी दिखा इंसा नहीं

~ सूफी बेनाम

डगर- path/ village road, आसरा - hope, कान्हां - youthful playful amorous Krishna, ज़मीर - conscience, तस्बीह - simile, शिफ़ा - healing/cure.



Can be sung as अभी न जाओ छोड़ के कि दिल अभी भरा नहीं

Sunday, December 20, 2015

रेशमी-गुंचा साँस मुबारक है ग़ज़ल

वैरागी दीवानगी निभाती है ग़ज़ल
अश्क के  सपने सुलगाती है ग़ज़ल

लिखा था हिज्र के वीरानों में जिसे
वस्ल के रास्ते दिखलाती है ग़ज़ल

फ़रियाद के अर्गल खढ़काती हुई
तेरी शिकायत सुनने आती है ग़ज़ल

तराशती है जब जब उसे लिखता हूँ
नये नये मुकाम ले आती है ग़ज़ल

कभी कभी शम्स तलक परछाई है
वरना  सायों की रातरानी है ग़ज़ल

मिलती है मुझसे बे-अदब सादी सी
पर अक्सर आगोश महकती है ग़ज़ल

सुबह का खुमार नशा हर रात का
सूफीया धिक्र सुलग गुलाबी है ग़ज़ल

किसी का ख़म, हिना सिन्दूर सी
चूड़ी कोई कंगन खनकती है ग़ज़ल

चन्दन भी चांदिनी बेहिस सवालों सी
मेरे रोम-रोम को महकाती है ग़ज़ल

बेवजह दिल को सुलगता  कौन है
कागज़ पे बिलखती तड़पती है ग़ज़ल

कुछ ढकती है साज़-ए-दिल अक्सर
सूती शिफॉन कभी रेशमी है ग़ज़ल

नहीं ढूंढ़ती है रिश्ते इंसानों से अब
आजकल किताबी हो गयी है ग़ज़ल

ज़रा करीब आओ आजमाएं हम भी
क्या फुसफुसाती क्या सुनाती है ग़ज़ल

ज़ुल्फ़ की तहरीर में बाली झूमती  हुई
काक के कोहराम सी खुमारी है ग़ज़ल

रात अकेली है नींद नहीं आती इसको
सिरहाने अक्सर मश्क़ जलती है ग़ज़ल

ख्याल ही नहीं यादें औ अल्फ़ाज़ भी हैं
सबको नयी पहचान दिलाती है ग़ज़ल

बेनाम बगैर बेअंजाम बेआवाज़ अधूरी है
रदीफ़ औ काफ़िया पे सुलझती है ग़ज़ल


गुंचा - bud, वैरागी - a spiritual realization that leads to indifference, हिज्र - separation from beloved, वस्ल - union, अर्गल - door knocker, शम्स - sun/Truth as used in this work, रातरानी - cestrum nocturnum, आगोश - embrace, खुमार - intoxication, ख़म - lock of hair, साज़-ए-दिल - musical instrument of heart, तहरीर - writing, बाली - ear ring, मश्क़ - letter writing/ practice




~ सूफी बेनाम 

Thursday, December 17, 2015

समझदार को इशारा काफी रहा

हम-वज़ादार संभलते रह गये
समझदार को इशारा काफी रहा
ऐतबार-ए-शम्स जलते गये
साहिर तेरा पिटारा काफी रहा
सुकून बा-परवाज़ गर्द गये
फ़लक का नज़ारा काफी रहा
फ़ितर रंग-ए-ख़्वाब नाहक़ गये
ऐतबार-ए-मुक़द्दर काफी रहा
मुनाजत के पैमाने खाली गये
रक़्क़ास का शरारा काफी रहा
इम्तेहान-ए-तार्रुफ़ जान अगर
ला-इल्मियत का सहारा काफी रहा।
~ सूफी बेनाम

मुनाजत - prayer, hymn. रक़्क़ास - dancer . वज़ादार - dependable. साहिर - magician, तार्रुफ़ - acquaintance, ला-इल्मियत - illiteracy .

smart people can read signs for their benefit

mutually dependable ones tried balancing
smart ones picked the signs to their benefit
while I burned myself in the sun of trust
o! magician your box full of wonders was enough
search for peace in my flight was a waste
but I had a good view of the horizon
was useless to run behind my instinct for colour of life
i should have just rested on my fate
measures of prayers remained un-fulfilling
more got fulfilled through the colourful dresses of dancers
if the purpose of life is to get me acquainted to tests
i better remain safe with my illiteracy.



Wednesday, December 16, 2015

दिन के फलसफे


तक़दीर के फैसले  न मंज़ूर करता
गर हमदर्द कोई फ़रिश्ताई में होता

मैं नहीं जीता दिनो के फलसफों में
गर सबक दूरियों का स्याही में होता

भरता न ख़लाओं को वीरानगायी से
गर वस्ल लिखा आजमाई में होता

रास्तों को मंज़िल न समझता हमदम
गर दबा नक्शा मेरी किताबाई में होता

साहिल के रास्ते ही डूबता बेनाम गर
गर बेसब्र सहलाब तेरे अगोशाई में होता

फ़रिश्ताई - in angelic capacity/ control, फलसफा  - philosophy, ख़ला - space/ infinite.

~ सूफी बेनाम



वस्ल - Union, ख़लाओं - endless space 

चाहतों को चाहतों से तुम बदलकर देखना


चाहतों को चाहतों से तुम बदलकर देखना
तुम ज़रा सीरत अपनी खुद बदलकर देखना

यूं अक्सर ही मिलेंगे तड़पते अहबाब कभी
तुम ज़रा खुदसे संभलकर उनके नश्तर देखना

चाहतों के पर नहीं पर सबा का रुख तो देख
खुद सवारना और आँचल सा बहककर देखना

फितरती इंसान मैं ज़िन्दगी कैनवास सी है
तुम बिखरना और अपने रंग उड़ेलकर देखना

हर नयी मुलाकात जब रिशते सी बनने लगे
तुम ज़रा नज़दीकियों को दूरकर कर देखना

हैं पैगाम देने आते बदली फ़िज़ा और तितलियाँ
तुम ज़रा तन्हाइयों से अपनी निकालकर देखना

कुछ मेरे से रिश्ता फिर बेनाम सौदा जीस्तगी
तुम ज़रा कुछ दूर और आगे निकालकर देखना

~ सूफी बेनाम

सीरत - quality/nature/disposition/character, अहबाब - lover/ friends, जीस्त  - life existence.






Monday, December 14, 2015

तेरे लब से चाहतों का खुलासा नहीं मिला


इन हसरतों को कोई  दिलासा नहीं मिला
तेरे लब से चाहतों  का खुलासा नहीं मिला

मेरा चेहरा मुझको आइना दिखने लगा है क्यों
तक़सीर को हकीक़त-ए-तमाशा नहीं मिला

गुम-सुम से पूछते हैं बाम-ओ-दर फिर-फिर
तू कौन है जिसको मेरा ठिकाना  नहीं मिला

वो मिल के बिछड़ने का जज़्ब आम बात है
मिल-मिल के बिछड़ने का नमूना नहीं मिला

नसमझियों की सर्द को सूफियत का भरम
बेनामी के रिश्तों को कुहासा नहीं मिला
~ सूफी बेनाम


तक़सीर - error/ crime/sin , बाम-ओ-दर- roof and terrace, कुहासा - fog



कुहासा - fog ; तक़सीर - sin.

Sunday, December 13, 2015

रात तेरी शुआओं पे जो बुझी नहीं



क़ाफ़िया अत

रदीफ़ हो गई है


ग़ज़ल मेरी अदालत हो गयी है

हसरत तेरी इरादत हो गयी है


शुआओं से बुझी नहीं जो रातों में

चाहतें कोरी खल्वत हो गयी है


खुलती है नींद हररोज़ रातों में

सांसें तेरी मसाफ़त हो गयी है


सिरहाने मेरे तेरा क़ल्ब है यूं तो

दर-हकीक़त अज़ीयत हो गयी है


खुदाई सवाल रदीफ़ काफ़िया में

चाहत मेरी मुरव्वत हो गयी है


बद हवासी में ख़्याल समेटे-बटोरे

नज़्म मेरी नदामत हो गयी है


था सूफिया मगर इतना नहीं था

ज़िल्ल तेरी क़यामत हो गयी है

~ सूफी बेनाम



इरादत - faith, शुआओं - light of eyes , खल्वत - to retire in solitude, नदामत - regret, क़ल्ब - centre, destination, अज़ीयत - suffering, दर-हकीक़त - in fact, ज़िल्ल - shadow, मसाफ़त - distant , मुरव्वत - modest. 

Wednesday, December 9, 2015

सर्द रातें

लिपट अपने सायों से चादर सोते हैं कलन्दर सभी
सपनों की खासियत सर्द में बेताब  हैं बेघर सभी

कैफियत हवस इंसान की रही है सलाहियत तभी
जब तलक उम्मीद से आसरे हों कोई बेहतर तभी

स्वप्न या कोरी हकीक़त ये पहचान पाते हैं तभी
उठ खुद जब महसूस करते हैं सांसें औ चादर सभी

ये सियासत दिन की थी या रातों की मासूमियत
अपनी पहचान को हैं साहिल कभी समुन्दर सभी

सूफियत में महफूज़ हैं दीन उम्मीद उजाले सभी
बेनाम तम की ताबीर में रह जाते मुक़द्दर सभी

~ सूफी बेनाम



कैफियत - engrossment, सलाहियत - ability, कलन्दर - sufi . दीन - faith, ताबीर - interpretation.

Tuesday, December 1, 2015

कुछ ख़ास मंज़िल-ए-शान हो गए

कुछ ख़ास मंज़िल-ए-शान हो गए
ख़ाक-ए-गुज़र आये आहान हो गए

कुछ सजे शाख के गुलाब की तरह
बाकी सब्ज़ पत्ता और अरमान हो गए

कुछ के आब बहे बंद आँख से मगर
कुछ ज़ार काजल में बदगुमान हो गए

इश्क़ में संभलते नहीं मासूम के कदम
शौक-ए-ज़ीन लाये कुछ खादान हो गए

दौर-ए-ख़ास लाये मंसूर के कदम
कातिल भी शिकार भी इंसान हो गए

हारे खुद की उम्मीद-औ-आरज़ू से
हाल-ए-शिकस्त कुछ  बेनाम हो गए
~ सूफी बेनाम




आहान - iron ; मंसूर - Sufi / God , ज़ार -gold, बदगुमान- distrustful, ज़ीन - saddle.

Tuesday, November 24, 2015

मिलो तो कुछ अधूरापन से मिलो

जो अधूरा सा हो खुद में अब तलक
जो अब-भी ढूंढ़ता हो साथ थोड़ा
जो चाहता हो बैठना कुछ देर यूं ही
जो हो गया हो ज़िन्दगी से आज़मूदा
जो बेचैन नहीं पर शांत भी नहीं रह पाया
जो जानता हो ज़हन के अंदर तक का सफर
जो मेरे फरेब पर भी विश्वास रख सके
जो मुझसे अलावा कोई छवी न देखे
ऐसे अक्स-ए-इंसा से मिलने के लिये
बेचैन हूँ मैं
शायद ढूंढ़ता हूँ खुद को भी कभी कभी।
~ सूफी बेनाम

आज़मूदा - tried and tested.


Wednesday, November 18, 2015

दूब और बरगद

धरा-सम्पदा दूब और बरगद हम
पनपे नहीं एक ठौर साथ-साथ हम 

फ़िज़ा ओढ़े तुमको दूब आँचल सा
मैं था महत बरगद सा उमड़ रहा
कोशिश कि सटाव से ढक लूँ तुमको
पर दम और क़ज़ा के फलसफे थे

दबे थे तहों में नयी पहचान बनके
नमी से धरा में कुछ बीज जगे थे
बेचैन  उगने को सतह तक जो आये
कोंपल घास औ दरख़्त मुस्कराये

सुप्त अंकुरित हुए अपने शयन से
न जाने कब भिन्न अभिलक्षण लाये
आइंदा की पहचान किसे  कहाँ से
कब  गांत बदा पहचान लेकर आये

अंश हमारे आज  पवन के प्रवाह से
उड़ के बेचैन नियति के अयान से
अधीर हैं खोजने अस्तित्व फिर से
कुछ निस्सार कोने धरा सम्पदा में

~ सूफी बेनाम




आइंदा - future , गांत - plants , बदा - destined , महत - dense , सटाव - proximity, दम - life/breath, क़ज़ा - destruction, फलसफे - philosophy, निस्सारा - sacrificed/ scattered , अयान - nature/ disposition 

Tuesday, November 17, 2015

क्यों दौर-ए-जदीद को तक़दीर समझ लें

क्यों दौर-ए-जदीद को तक़दीर समझ लें ?
उम्र के तक़ाज़े को कैसे जवानी समझ लें ?

दस्त-ए-शिफ़ा है हर लम्हा मुलाक़ात का
पर क्यों न कुछ देर और बीमारी समझ लें ?

चुभता है हर अल्फ़ाज़ा-ए-नख मैं जानता हूँ
क्यों न कुछ देर मक़सद-ए-खामोशी समझ लें ?

बेताब नब्ज़ है मोहब्बात और जुदाई भी
क्यों न मुलाकात तुझमें खुद को समझ लें ?

नासमझी इंसा को बाम-ओ-दर बसाती रही
क्यों न चारागाह भी इसे तक़दीर समझ लें ?

ग़ैर मज़हबी गर हो जायें इंसा ये रिश्ते कैसे
क्यों न तुझे सूफी औ खुद बेनाम समझ लें ?

~ सूफी बेनाम

जदीद -  modern, नख - nails/claws, तक़ाज़ा - characteristic arising out of change/nature, दस्त-ए-शिफ़ा - hand that heals.



Wednesday, November 11, 2015

रौशनी को बसा लेना

माना
धूमिल सत्य हो जाता है
जद्दो जेहद हर साँझ तक
खुद में, मैं बस जाता है
अहम् चेतन की हद तक ।

जागो
कार्तिक की गहरी रात है
मौसमों के बाहुल्य तक
सौंदर्य - लावण्य- शोभ है
दीयों की लौ दयार तक।

आज
दीपावली  आतिश पर्व है
प्रज्जवल आंतरिक रूह तक
प्रेम-अनुराग, उत्सर्ग-योग है
ज़िन्दगी की मुंडेर तक ।

~ सूफ़ी बेनाम


बाहुल्य - abundance, दयार - region/territory, उत्सर्ग - act of giving freedom.










Tuesday, November 3, 2015

दर्पण

हटो
ज़रा रास्ता दो,
आईने में
उतारना है मुझे।
पूछना है
अपने अक्स से,
की गर है बिम्ब मेरा
तो कुछ बोलता
क्यों नहीं है ?
मिलना है मुझे
मुझसे ?

~ सूफी बेनाम


Friday, October 30, 2015

करवा चौथ की शाम से सवाल

सहम कर सितारे
जब बादलों में जा छुपे थे
एक रिश्ता शायद सारा जहाँ
आज पहचान रहा था
कुछ लदा था शीर पे
सुर्ख वेदी सिंदूर शायद
शायद रक्तिम सा
चाँद विभोर हो रहा था
रौश तुम्हारी आँखों में
जल के लौ औ रौशनी सा
कंगनों की खनक पे
थाल दिये का संभल रहा था
गेसुओं की महक लिये
हाथ मेहंदी पंखुड़ियों से सजे थे
एक नाम ले रहे थे क्या
या शायद कुछ बुदबुदा रहे थे
करीब मैं उस दिन उतना ही था
जितने बंद आँखों में सपने सजे थे
उत्कृष्ट किसी परिणाम को
प्रणय जला रिश्ता निखार रहा था
उस दिन भी हैरां सा था
जैसे आज हूँ मैं
किसके प्रयोजन से जगा
अनुराग है ?
किस अभिप्राय को
हमारा साथ है?
~ सूफी बेनाम

वेदी - vedic, रक्तिम - red like blood, गेसू -flowers, उत्कृष्ट - full of capability/character/ beauty, अनुराग - passion/eternal love/attachment, अभिप्राय - intention.




Thursday, October 29, 2015

हाथ तलब बैचैन किसी साथ को

दीदार-औ-उम्मीद सजाने लगे हैं
लम्हे भी अब गुनगुनाने लगे हैं

देखो तुमहारे दो दम के दो वादे
निभाने में हमको ज़माने लगे हैं

नफ़्स भूलना अंदाज़ ऐसा रहा
सफर से पहचान बनाने लगे हैं

हाथ तलब बैचैन किसी साथ को
तेरे लम्स से हिचकिचाने लगे हैं

भूलना मुनासिब रहा नहीं कभी
तुझको भी इंसान बताने लगे हैं

मुत्तवासित रहे नहीं अंदाज़ तेरे
हम ग़ैरों से उम्मीद पाने लगे हैं

इश्क़ भी खेल बड़ा बे-मुरवात रहा
कोई भूलाने कोई याद आने लगे हैं

मश्क़ भरती रह गयी ख्वाइश कोई
हम तुझे लिख के भुलाने लगे हैं

यादें भी कुछ चेहरे लगाने लगीं  
जब खुद को बेनाम बताने लगे हैं

~ सूफी बेनाम



मुत्तवासित - mediate , नफ़्स - soul, self ,
मश्क़ - writing or drawing letters .

Monday, October 26, 2015

ओट

बनाता साया है मेरे असल को अंजाम तलक
गगन में घूम के हर मौसम हर शाम तलक
ओट ले दीवार की बचता रहा परछाई तलक
शम्स तहे फलक मुझको ढूंढ़ता रहा शाम तक
~ सूफी बेनाम





सौम्य

क्या अनभिज्ञ रहे ख़्वाबों से
या सोये नहीं थे रात को
क्या विवश हुए कुछ खो देने से
या बेसुध खुद में बिसरने को
क्या आवाज़ जागी थी सुबह से  
या राह से अल्फ़ाज़ ढूँढ़ने को
क्या कोई शरारत बिस्तरों से
सुबह आयी काँधे ठहरने को
क्या नासमझी बढ़ीं दिल्लगी से
या रहा द्वेष विद्रोही-विवेक को
अतुल्य है मर्म हर पल सौम्य
शिकायतों से न खोना इस को।
~ सूफी बेनाम


क्यों लबों पे आज भी बेचैन तेरी आदत पुरानी है

उलझ ले मुझसे कि गर तेरा उस्लूब मोहब्बात है
कि ख़म में आज भी तेरे महकती जवानी है।

वफ़ा कर, कि उल्फ़त मिलती नहीं लाख चेहरों में
अदा-ए-आबिदा मेरे हमराज़ की लश्कर रवानी है।

खुदा भी सोचता है हर बार मेरे हाल-ए-हसरत पे
क्यों लबों पे आज भी बेचैन तेरी आदत पुरानी है।

ये नहीं सोचता मैं कभी मिल के गुज़र के फिर
सुराह-अल-ज़लज़ला क्यूँ आज फिर मेरी कहानी है।

अलाम-ए-अखतरों के रास्तों में मिलना बिछड़ना क्या
कि खोई लम्बी शामों को रातों की आदत पुरानी है।

रस्म-ए-सूफ़ियत में खुद को अब बेनाम कहना क्या
तेरे लफ़्ज़ों पे बस्ती मेरे तखल्लुस की ज़िंदगानी है।

~ सूफी बेनाम







Saturday, October 17, 2015

रात

अधूरी नींद में
एक ख़्वाब से लिपटकर
मैं इस तरह रोया
कि जैसे फासला कोई
एक दूरी से बढ़कर
बाहों में गोया।

~ सूफी बेनाम





Tuesday, October 6, 2015

अंदाज़ मरासिम के

कभी-कभी कुछ किताबें
साथी बन जाती हैं
हम उनको खोलते पलटते नहीं
बस साथ रखते हैं।
बंद पन्नों से सवाब मिलता है
उस अनुभूति का
जो आँखों से पलटती नहीं
न ही ख्याल से गुज़री है।
जीवन का हर वो लम्हा
जो खुद से संभलता  है
घिस-घिस के बयां करता
अंदाज़ मरासिम के ।
~ सूफी बेनाम


Friday, October 2, 2015

ज़िन्दगी ये सफ़र अब नया तो नहीं

ज़िन्दगी ये सफ़र अब नया तो नहीं
हर क़दम जो साथ दे, खुदा तो नहीं।

ये मुड़ के रुक गया कि तेरा नाम सफ़र में
अंदाज़-ए-दर्द ही था कोई शिफ़ा तो नहीं।

लोग छू देते हैं अब भी  देखने अक्सर
दो रंग का अभी तक मैं इंसा तो नहीं।

लिखना ज़रूरी था जिये जस्ब सफर में
पर तुझतक न पहुंची वो सदा तो नहीं।

यहाँ  फरिश्तों में तेरा ज़िक्र रहता है
मेरा इंसा रह जाना कोई अता तो नहीं।

फ़िक्र तेरे ख़ुल्द की अब करता मैं नहीं
तेरे साथ का कोई रंग अदा तो नहीं।

अनजान गुज़र गयी जो बेनाम शहर में
वो शाम सूफ़ियानी कोई खता तो नहीं।
~ सूफी बेनाम






Thursday, September 17, 2015

गुज़र-नामा

कुछ उम्र गुज़र गयी थी इंसा की
कुछ ख़्वाब-ए-ताबीर को बाकी थी

है ज़र कुछ भी नहीं अहले-जहाँ
हर मौज लौट कर के टकराती थी

छाप इंसा की इंसान पर पड़ती यहाँ
नये नामों  से  रौश  दोहराती थी

इंसा बसर-गुज़र रहे बस उम्र में
तस्वीरें साथ देने को, दो बाकी थी

सायों के नाम ले कर गुज़र-नामा
शायरी हक़-ए-गुज़र बन आयी थी।
~ सूफी बेनाम




बदल-ओ-अस्ल हो आवारा जैसे

ना-मुक़ाम कर गये बंजारा जैसे
बदल-ओ-अस्ल हो आवारा जैसे

हकीकत-ए-अब्दल हो रही रवाँ  
शिफ़ा-ए-याद हो सहारा जैसे

अथक सांसें सुना रही दास्तां
रिश्ता-ए-ज़रुरत हो गंवारा जैसे

खुश्क ओंठों का बढ़ रहा रूमान
आब-ए-चश्म ही हो किनारा जैसे

लम्हा-ए-उलझन सांसें गुमां  
उल्फ़त-ए-महक अंगारा जैसे

जिस्म-बेकाबू दीद-ए-याद जवाँ  
भँवर-ए-अख़्तर कहीं शरारा जैसे

निगाह-ए-तलाश  आफ़त  मेहरबाँ
ज़िक्र-ए-बेनाम, बेज़ुबाँ नज़ारा कैसे
~ सूफी बेनाम




Saturday, September 5, 2015

पैराहन

क्या रिज़ा
कि देखूं अलग इसे
या रह पाऊं
संग इसके कभी।
बे-परछाई
अधूरा जीवन
सीरत में छुपा
अज्ञात अहम।
झलक ज़रुरत
महज़
शक्ल औ बदन
उसकी ।
तन्हाई से
उभारता
किसी सम्भावना का
उदगार शब्दों में।
किसी स्याही से
बह गुजरने को
बेक़रार
एक डूबा चेहरा ।
शायद किसी
समय की तलहटी का
सूफी
उभरता है मुझमे
पहर दो-पहर।
बेनाम बसेरा
पैराहन मेरा।

 ~ सूफी बेनाम


इसलिये

ये कहानी ख़त्म
एक सफर में हो जायेगी
इसलिये बेचैन हूँ मैं
पहुंचना मुनासिब नहीं
किसी के लिये
इसलिये अधीर हूँ मैं
तुम भी गुज़र जाओगे
कुछ देर रुक कर के
इसलिये बेकरार हूँ मैं
समय बदलेगा नहीं
उसूल बदगुमानी में
इसलिये दोस्त हूँ मैं।
~ सूफी


जाना था अगर

तुम को' जाना था' अगर हाथ मिला कर जाते
अपनी क़ायनात का मन्सूर*  बता कर जाते।

मैं कोई साया नहीं कि खिंचा आता तुमसे
ज़िन्दगी का थोड़ा रूमान निभा कर जाते।

अजनबियों की तरह मिलने से दूरियां बेहतर
पर अपनी इबादत का मक़सूद बता कर जाते।

ज़िन्दगी को ज़रुरत नहीं किसी हिस्सेदार की
तुम जाते तो गुज़िश्ता का बटवारा कर जाते।

कोई खुदा मिला नहीं दास्ताँ-ए-मोहब्बात को
एक सबक़ आखरी इंसानियत का समझ कर जाते।

है दस्त-ए-शिफ़ा हर बदलाव में ज़िंदा इंसान
जाते तो हर तज़-ए-लम्स  सूली चढ़ा कर जाते।

~ सूफी बेनाम



मन्सूर - Sufi Saint who believed he was GOD , रूमान - romance

उबल कर नादां

 उबल कर नादां खुद ही से उफन जाते हैं
आतिश-ए-तक़दीर के नज़ीर रह जाते हैं।

मदार-ए-हकीक़त रह गया रूह का जुनूँ भी
बदन में ज़िंदा हैं और बदन में मर जाते हैं।

पुराने हो कर के दोस्ताना-ए-मौसम सभी
अपनी-अपनी गिरह में सिमट जाते हैं।

शिकस्ता हो कर के वीराना-ए-आलम भी
अपनी हदों के पार शहरों में बदल जाते हैं।

रिश्ते जो ओढ़ रक्खे थे खुद के लिये कभी
उन्स-ए-लम्स को बे-सलाह छोड़ जाते हैं।

होश रहता नहीं कि बदलती तारीखें भी
ना-दानिश खाई में ले के फिसल जाते हैं।

~ सूफी बेनाम

मदार - orbit , उन्स - friend , lover. दानिश - known ,  नज़ीर - example



Saturday, August 29, 2015

किस्से का कहानी तक आना हुआ

किस्से  का कहानी तक आना हुआ
अल्फ़ाज़ों में एक शहर बसाना हुआ।

कोई नया बहाना  दे ऐ ज़िन्दगी
मोहब्बात का मतला पुराना हुआ।

बुलबुला जो सफर-ए-दीवानगी  था
कागज़ पे सूख के शिनासा हुआ।

मात्राओं की गिरफ़्त में एक किस्सा
ग़ज़ल तक पहुँचते अंजना हुआ।

सूद-ओ-ज़ियाँ का बचा कोई हिसाब
 या डायरी का रद्दी में जल जाना हुआ।

हमने मिन्नतें अल्फ़ाज़ों से की बहुत
ढूंढ़ना उन्ही रास्तों को बेईमाना हुआ

सूद मिसरों में बंधी एक ग़ज़ल मिली
असल को गुज़िश्ता-ए-यार भूलना हुआ।
~ सूफी बेनाम


कभी कभी की मुलाकातें

मेरे कुछ दोस्त जो
दो-चार साल में
मिलने चले आते हैं,
बहुत तकनीक से
लड़कपन में उतार ले जाते हैं।
दो पल में २०-२५ साल का सफर
पार कर लेते हैं और
चलते चले जाते हैं।
पर शायद और जवानी
किसी को रोक नहीं पाती,
कोई संभालता नहीं है,
कोई उम्रदार हो जाता है।
मुलाकात कुछ घंटों की
पोशीदा मुस्कराहटों में ग़ुज़र करती है
और उसी में छिटक जाती है।
बातों में किस्से  हर बार नये होते हैं
कोई कुरेदता है, कुछ  नया पंगा लेता है।
पर सीख हर एक यही ले के घर जाता है
शिफ़ा  तजुर्बों का, हर एक
अपने बचपन को ढूंढ़ लाता है ।
~ सूफी बेनाम


Wednesday, August 19, 2015

शादी की पच्चीसवीं सालगिरह

चुप बैठे एक कमरे के कोने-किनारे मौन हैं
पच्चीसवीं सालगिरह पे रिश्ते ये प्यारे मौन हैं।

दर्द -ए-मोहब्बात से हर शिकायत कर चुके
गुजरने का अंदाज़ देखो जिस्म हमारे मौन हैं।

हर उलझन पे अटकते हुए कहीं उतरे थे हम
गिरह खुल चुकी फिर भी सपने सरे मौन हैं।

आज पैसा है ईंधन  है गाड़ी की मनमौजी का
रास्ते सब मौन हैं, मनसूबे तुम्हारे मौन हैं।

पसंद नहीं मुझे इन कागज़ों पे लिखना तुम्हारा
आज जितना भी लिखो पर  सितारे मौन हैं।

चुप बैठे एक कमरे के कोने-किनारे मौन हैं
पच्चीसवीं सालगिरह पे रिश्ते ये प्यारे मौन हैं।

~ सूफी बेनाम



घिसे हुए खांचों

बचपन नासमझ रहा
ढूंढ़ता रहा जवानी को
जवानी बेताब रही
पिघल  चुकी थी किसी  में
एक बरसात से मोहब्बात तक के रास्ते
और वहा से दर्द का सफर
एक रिश्ता हज़ार सपने,
सब सीखे सिखाये हुए
बच्चों की तरह पढ़ाती रही ज़िन्दगी
पहचान  को बेताब मेरा दंभ
हर मुनासिब सहारा
ढूंढ़ता रहा।
आज मेरी कविता भी
इंसानी अधूरेपन को
वही पुराने रास्ते
ढूंढ़ती है।
इन घिसे हुए खांचों से अलग
कुछ नया चाहता हूँ।

~ सूफी बेनाम



चेतना

ढूंढ़ता है गुज़रते हुए जिस्त का साथी क्यों ?
फिसलती हुई उम्मीद फिर चली आयी क्यों ?

चेतना दर्द की नहीं उम्मीदों की चुभती  है
बात इतनी सी मेरे समझ न आयी क्यों ?

माना, गुज़ारना मिजाज़ मुलाकातों का है
मेरी अधेड़ी में छुपने तेरी शाम आयी क्यों ?

स्पर्श एक मिसरे का लब पे  महसूस हुआ
पर याद किसी और वक़्त की आयी क्यों ?

उम्र की ढलान के रास्ते तेज़-चुस्त-साफ़ हैं
फिर अटकती है मेरे साथ तेरी परछाई क्यों ?

जिस समझ की दाद रही दुनिया अब तक
उसको इतनी नासमझी रास आयी क्यों ?

~ सूफी बेनाम




Wednesday, August 12, 2015

निसर्ग

एक कमज़ोर, थकी हुई
निढ़ाल ग़ज़ल के वक्ष पर
कुछ अक्षर, अल्फ़ाज़ मात्राएँ
चिपके हुए थे।
निसर्ग था
कि गोदते थे उसके स्तन
अपने
नये पैनिले दाँतों से।
वेग से कूद कर
कुछ पीछे जाते
फिर नोचते थे उसे
कुछ बूँद दूध या खूं के लिये बूखे थे ।
वो उठी, आगे बड़ी पर
कुछ दूर कूद कर रूक गयी थी
अपनी वृति से मूह मोड़ना
कुछ कठिन था।
हर अल्फ़ाज़ को जगह देती
जोड़ती, उनका पेट भारती चलती ये ग़ज़ल
अब कमज़ोर दिखती है मुझे
बे-मायने हो चली वो खूंखार ग़ज़ल ।
~ सूफी बेनाम


लहरें

क्यों गहराई से उभर आयीं थी लहरें कभी
क्या किसी सीने-किनारे टूटना ज़रूरी था।

गहनता रहती क्यों नहीं सतह पे शांत कभी
सुप्त-व्याकुलता को सतह पे उफनना ज़रूरी था।

नंगे पाँव चुन लाया था सीप का टुकड़ा तभी
सूखी चादर को सहलाब का तकाज़ा ज़रूरी था।

हाथों को खरे पानी का लम्स याद रहा फिरभी
तेरी ज़ुल्फ़ों से कुछ छीटों का बरसना ज़रूरी था।

मैं तेरी गहराई में बेनाम न रह पाया कभी
शायद चेहरों और लहरों से मिलना ज़रूरी था।

~ सूफी बेनाम


Monday, August 10, 2015

तेरी नज़्म

जब तेरी नज़्म को शमा की आग से रिझाने गया। 
मेरी परछाईं से एक बेदार मिसरा महक सा गया। 

कुछ लम्स खोजता लौ का दमकता किनारा रहा 
गुज़रती रात में तेरे एहसास का ज़िक्र बढ़ता गया। 

तुम मिली कहीं पे बेकस, मात्राओं में अल्फ़ाज़ों में 
या वक़्त रहते तुमको पढ़ने का सलीका आ गया। 

बेनाम तेरा छुपना शमा-ए-बज़्म में मुमकिन  नहीं 
मिलता हर झपक रौशनी को अंधेरों का सहारा गया। 
~ सूफी बेनाम 



Sunday, August 9, 2015

बेसाध

ज़रा कुछ देर और बसर जाने दे मुझे
एक किस्सा बन के मिलने आऊंगा।

गर ग़ज़ल के सिरे पे अटकी मेरी सांसें
तो दुसरे पे तेरा नाम उभर के आयेगा।

वो शेर जो दिक्कत तेरे लम्हों को हैं
उनको  बुनने  में मुद्दावा भरमायेगा ।

हैं वाकिया कई  जिनका ज़िक्र नहीं
तू  पढ़ेगा कभी तो शायद समझ पायेगा।

उलझनों की यातनायें क्या काम थीं
इसपर वो तन्हा डुबो के जायेगा ।

कुछ देर इस तन्हाई ने सताया मुझे
कुछ रुस्वा तेरा जीस्त तड़पायेगा।

कभी तू मेरी आँखों में उत्तर के तो देखो
एक अंगार की भसक को  छू जायेगा।

एक दिन बेफिक्र-आज़ाद परवाना कोई
तुझसे मिलने मेरी रज़ा बन के आयेगा।

तब शायद मेरी तलब का कोई आंसू
इस कदर लिपटकर उस पे बह जायेगा।

तुम समझ लोगे लम्हों का दर्द बेहतर
मुझपर शायद एक पन्ना पलट जायेगा।

कोई दिलासा रिश्तों में रोकता था मुझे
कोई मिसरा तुझे आज़ाद कर दिखलायेगा ।

~ सूफी बेनाम





बल्लीमारान

गली जो ख़्वाब शायरों के बसाती रही
एक सदी में बाज़ार-ए-चश्म हो गयी ।
~ सूफी बेनाम



Hain aur bhee duniya mein sukhanwar bohot achche
Kehte hain ki ‘Ghalib’ ka hai andaaz-e-bayaan aur
Ballimaran ke mahalle ki wo ………
…………………………………………
Isee be-noor andheri see gali qaasim se
Ek tarteeb chiragon kee shuru hoti hai
Ek quran-e-sukhan ka safa khulta hai
Asadallah Khan Ghalib ka pata milta hai.

गली-ए-ख़्वाब, शायर का घर कहीं
सदा-ए-इम्तेहाँ, बसे बाज़ार यहीं ।

अल्फ़ाज़-ए-कल्ब था जला बल्ली-मारां
किताबी रह गये उसके आशार  यहीं।

शर बदलती है गली-ए-क़ासिम शौक से
ऐ वक़्त कुछ उगे थे अल्फ़ाज़ यहीं।

ज़िक्र जहाँ उसका बिकता रह गया
बेनाम अब्र घसीट लाये गुलज़ार यहीं।

~ सूफी बेनाम



Monday, July 27, 2015

बज़्म

यूं तो लहज़ा-ए-ज़िन्दगी नहीं बदगुमां शायद
फिर क्यों हौसले पस्त रहे अरमानों पर
शब-ए-शिकस्ता कोई शमा जल उठी होगी
ज़िक्र नहीं सायों का महफ़िल-ए- सूफी पर

नाउम्मीदी न छलके कहीं अल्फ़ाज़ों में
तेरी बज़्म में देहकेंगे एक ख्याल बनकर
चार दिल और भी बहकेंगे , जलेंगे शायद
मेरी हसरतें खिलेंगी तेरी आवाज़ बुनकर

~ सूफी बेनाम


Saturday, July 25, 2015

अचार की डेलियाँ और गस्से रोटी के

बेइन्तहां अचार की डेलियाँ
रोम-रोम मसाले तर-बतर
नाख़ून के सिन्के में दाग
अब भी गस्से मुलाकातों के
किस्मत की थाली से तोड़ के
कुछ अचारी यादों के मसले
कोने से छुआ के चपाती का निवाला
दाँतों से पीस कर
सूखी रोटी के वज़ूद का
बदलता हुआ स्वाद
आहा !

सजी हुई कटोरियों की ताज़ी तरकारी
को अब क्या समझायें ?
मुझे ये आचार की टुकड़ियों को
जीभ पे चलाना,
दबा के उभरते स्वाद का मज़ा
एक खट्टी बिखरी डकार
पसंद है।
~ सूफी बेनाम
 



Tuesday, July 21, 2015

एक दिन अकेले में निबट लेंगे

एक दिन अकेले में निबट लेंगे उससे
वो अपनों के बीच बेसाध हुई जाती है
जिस तलक मिलती है मुझसे सिर्फ मेरे लिये
उस लम्हा-ए-ज़िन्दगी को उम्र समझ लेते हैं।

तुम बुझा दो ये जस्ब, ये गम के रिश्ते
मोहब्बत दूरियों को अंजाम देने आयी है
कब तलक शर -ए-आगोश में रहेंगे बस्ते
फ़िज़ा रंग-ए -हिना बन के चली आयी है।

कोई चाहता था ये बहुत था ज़िन्दगी के लिये
आदत-ए-इनायात नया सबब ले के आयी है
ख़्वाबों का दीद हुआ उसे ज़बीं से मिटाने को
एक सोज़ सुबह जाह-ओ-हाशम बिठाने आयी है।
~ सूफी बेनाम

जाह-ओ-हाशम - rank and dignity





Saturday, July 18, 2015

नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो

नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो
बात बहकती नहीं हम-नशीन मिसरों में
रातों का सफ़र लम्बा है, कुछ तो कह दो
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।

मैं अफ़्सुर्द नहीं, कुतुबखाने में दफनाया हुआ
न ही आशिक हूँ किसी बाहों में सजाया हुआ
बहती है कलम मेरी हर रोज़ की बग़ावत है
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।

हैं तो हैरां पर तरस परस्तिश पे मुझे आता है
किसी के लब पे था और फिर भी खाली रहा
रस्म रोज़ की बनायी है, कभी-कभी निभाने को
नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।

कोई शायर नहीं हम, कि महफ़िल बेताब रहे
तेरी आज़माइश के तलबगार भी नहीं रहते  हैं
आसरा है आफ्रीदा, ज़र-खेज़ ख्यालों का
ज़ख्म सौदा हैं मुझे अल्फ़ाज़ों का मरहम दे दो।

नज़्म खाली है, मुझको दो अलफ़ाज़ दे दो।

~ सूफी बेनाम


Friday, July 10, 2015

एक परिंदा था और एक मैं गुज़रा

सूनी एक ठंडी छाओं लिये
एक परिंदा था और एक मैं गुज़रा
मेरे सामने थी एक सूखी डाली सी
फुदक के परिंदा उस पर से गुज़रा
शाम के लम्स को ओढ़े हुए
मैं भी एक अकेला सा था गुज़रा
वो हैरां था मैं भी कुछ ऐसा ही
छाँव लेने दरख्त से सिमटते थे
शामें लम्बी थी रात सूनी थी
एक लम्हा जो अथक था गुज़रा
वो चैन पाता था किसी डाली पर
मैं इंसान था तो समझ से गुज़रा
शामें नहीं हैं उड़ने के लिये
खुलापन उदास रहता है
वो आसमां था जो उस पर गुज़रा
मैं इन्सां था जो ज़मीं पर गुज़रा
खुश नहीं मैं भी कि अकेला था
उदास वो भी कई डाली गुज़रा
एक लम्हा था जो तेरे लिये
शायद वो उदास उसी पर गुज़रा
मैंने रोका उसे एक करीबी डाली पर
पर वो तनहा था उड़ कर गुज़रा
दरख़्त थामते नहीं थे उसे अपनी बाहों में
वो परिंदा था फुदक कर गुज़रा
मेरी डाली झुकी थी किसके लिए
मैं इंसान था तो समझ से गुज़रा।
~ सूफी बेनाम






अक्स में अब वो झलक नहीं आती

अक्स में अब वो झलक नहीं आती
मुझे ढूंढने ज़िन्दगी नहीं आती

जिस मांझे की डोर पे इतराती थी पतंग
वो अब उसे थामने नहीं आती।
लहज़ा खुले आसमान में आवारगी था
अब किसी बदली पे करम नहीं आती।
सांस जो अब महज़ एक वादा रह गयी
उसको उलझाने तेरी शिरीन अदा नहीं आती।
मेरे कुछ दोस्त मुझसे परेशां से हैं
कि इस बेनाम शायर को आशिकी नहीं आती।

जिस डोर की गिरफ्त पे इतराती थी पतंग
वो अब उसकी उड़ान तानने नहीं आती।
पर
उसके(खुदा के) हाथों ने थामा था मुझे ऐसे
जैसे बच्चा हूँ कोई जिसको ज़िंदगानी नहीं आती।
कैफियत बेनाम सही पर अब शुक्रगुज़ार हूँ  तेरा
दिन गुज़रने के बाद तन्हाई भी टटोलने नहीं आती।
अक्स में अब वो झलक नहीं आती
मुझे ढूंढने ज़िन्दगी नहीं आती
~ सूफी बेनाम






तेरे जिस्म को नहीं रूह को आना होगा

वो ख़्वाब जो खारिज़ देखे हैं तेरे साथ से
वो उदासीन आइन्दा को कर देते हैं
मुझे अब ये इल्म नहीं मैं मैं  रहूँ या बदलूं
कुछ तो तुझको भी अब शायद समझना होगा।

क्या मौसम कोई  जो रूक-रूक के इंतज़ार करे
हूँ त्यौहार नहीं जो सजा ले ईद औ दिवाली
कोई परंपरा नहीं जिसे यूं ही निभाना होगा,
अब तेरे जिस्म को नहीं रूह को आना होगा।

बुझूं कैसे कि तेरी निगाहों का सितारा मैं था
माना कि सुबह डूब गया औ नज़र से महसूस न हुआ
मुझे अब मेरे लिये कुछ थोड़ा बदलना होगा
शायद अब रौशनी की बेखुदी में मारना होगा।

सितम ये नहीं कि मैं ज़िंदा हूँ साथ तेरे मर के भी
सितम ये है गुज़रे वक़्त के लम्हात जब भी उभरें
रहूँ बेनाम मैं , तुझे रिश्ता कोई खुद ही कुचलना होगा
मेरी जान तुझे मुझ से अकेले ही गुज़ारना होगा।

~ सूफी बेनाम



Thursday, July 9, 2015

माचिस की तीलियाँ

बुझी हुई माचिस
की तीलियों की तरह
हम कुछ निढाल से पढ़े हुए थे
सिरहाने पे ।
सिर की आग
पूरे जिस्म को
न जला पाई थी मेरे
गलने में अभी
एक सदी बाकी थी।
कुछ सूझता नहीं
क्यों काठ की तीली
इतनी लम्बी बनायी थी।
वो मसाला जो
तिल-सा कोने में चपका
क्या वही पहचान बनायी थी ?
कुछ ताज़ा तीलियों को
देख के उस आग का
अंदाज़ महसूस होता है
जो कभी
हमारे सर भी थी।

~ सूफी बेनाम