Monday, December 8, 2014

सूखे पत्ते

क्यों साकित हैं ये सूखे पत्ते ?
ज़मीं को कहकशां सा सजा रखा है
मानो थक के गोद में लौटे है माँ के बच्चे
यहाँ मैदान में कोहराम सा मचा रखा है।

जो राहों को तकते रहे सूखने से पहले
आज हर पहचाने रास्ते को ढक गये है
ऊंचे घने दरख्त भी इन-बिन अधूरे
इन ठूंठों को उधाड़ा कर गये हैं।

जिस्म की शाख पे अख़्ज़ ये लाख पत्ते
तेरे लम्स से जग कर ताज़ा हुए थे
कहीं पीत कही सुर्ख शादाब था इनका
किसी बेरुखी से ये खफा हुए हैं।

बेसाध आस्मा की चाहत में बंधकर
हर शाख में गुल महक उठे  थे  
रंगों की फितरत में बंधा जब न था तू
तब खुशबू से जंगल सराबोर हुऐ  है।

कहीं शर्मसार जड़ों ने ज़मीं से उलझकर
फ़िज़ा को छाँव-गुल के महके वादे किये थे
तुम रहे मदहोश-आसमां में बिखरे अधूरे
मै भी ज़मीन-ए-शिददत से जकड़ा रहा हूँ।

जो बिछड़े हैं  डालों के रिश्ता-ए-पकड़ से
वो  मौसम-ए-रुखसत तक रंगीन रहे थे
लिए यादों के मौसम और कई हज़ार लम्हे
वो सूखे से ज़मीन पे बिखरे हुऐ हैं।

रुकता नहीं कोई इनको छूने-पलटने
न ही कोई इनकी फरियाद सुन पाया
दबे पाँव हवा के झोंको में सिसक कर
इस जहाँ को बादे-वफ़ा कह गये हैं।

तुम खुदा हो जहाँ के, तो बस वहीं टिके रहना
यहाँ हज़ारो की तादाद में दिल लुट रहे है
बेज़ुबां-ए-बशर को समझना परखना
बदलते मुक्क़दर के बस में नहीं है।

मैं कुछ देर रुकूँ ? या रुका क्यों यहाँ मैं ?
जहाँ नासमझी में कई सर सजदे में झुके हैं
मेरी शाखों में चाहत इंसा की है बस
कई खुदा आसमा पे लुट -मर रहे हैं।

जो बिछड़े हैं  डालों के रिश्ता-ए-पकड़ से
जो  मौसम-ए-रुखसत तक रंगीन रहे थे
लिए यादों के मौसम और कई हज़ार लम्हे
वो सूखे से ज़मीन पे बिखरे हुऐ हैं।

~ सूफी बेनाम




(साकित - dropped fallen lost, अख़्ज़ - grasp, शादाब - freshness).





Sunday, November 16, 2014

फ़राज़ न तुझसी नज़र मेरी

फ़राज़ तुझसी न निगाह मेरी
न नज़र में सूद -ओ-ज़ियान के
खाते बे-शुमार लदे
न अंधेरों में सिराज से
मेरे अश्क में सपने घुले।  

महोब्बत को कभी न लिख सका
न नेमत-ए-ज़ीस्त जैसे तेरे
न दीवाने तुझसे कोई मेरे
पर शायर हूँ तेरे जिंस का
लकीरों को ही लिख रहा।

ख्याल, परवाज़-ए-फ़राज़ का
ता जींद ज़ेर-ए-लब रहा
ये  सुरूर-ए- ख़ैर ये सलाहियत
मेरी ज़िन्दगी का पड़ाव थे
आज दर्द ही मुतरिब है।

मैं गुरेज़ नहीं गुस्ताख़ था
मुझे  शक नहीं था कभी मगर
मैं यकीन भी न कभी कर सका
रहे लब पे शीरीं अल्फ़ाज़ तेरे
एक सदी थी जो काट गयी।

बेक़रार है, कलम की थोर मेरी
और स्याही में सहलाब है।
कुछ अल्फ़ाज़ से दुआ तो है
की कागज़ों में जगह तो दें
एक उम्र से बेनाम हूँ।

~ सूफी बेनाम



सिराज - lamp ; सूद -ओ-ज़ियान - profit and loss ; नेमत-ए-ज़ीस्त - gift of life; जींद - life; गुस्ताख़ - arrogant ; ख़ैर- welfare; सलाहियत - capability, caliber ;  फ़राज़ - elevated; ज़ेर-ए-लब - whispers; गुरेज़ - one who escapes, fugitive; शीरीं - sweet; थोर - nib; मुतरिब - singer, minstrel.

Friday, October 31, 2014

शराब के रंग

बगैर समझे, शराब का माबदा
पीने का अंजाम गलत होता है
हर शराब का दोस्तों
नशा अलग-अलग होता है।

एक कुछ देर तक चलती है
एक छट चढ़ के उतर आती है
कोई सुरूर सा देती है
कोई महज़ बेक़रार छोड़ जाती है।

अब इतना जी चुका हूँ  कि
हर नशे की कहानी जानता हूँ।
किस फ़िज़ा में पैदा हुई- छनि
हर अंगूरी कहानी पहचानता हूँ।

फ़िक्र मुझको बस अब मेरी है
नशा महज़ बोतल में बंद
रंगून में मिलता नहीं
मेरे लिये।

~ सूफी बेनाम



माबदा - origin

आम ज़िन्दगी में कविता

सुबह की नींद को गर्म लिहाफ
अच्छा लगता है
दिन की खुश्क दौड़ में एक मुस्कराहट
अच्छी लगती है
शाम की हररश को बेख़्याल थका मन
अच्छा लगता है।

अकेले जूझते ख्याल का तजवीज़ बनना
अच्छा लगता है
शायर के अल्फाज़ो का इस्तिदा बनना
अच्छा लगता है
किसी पुकार का आज़ान में बदलना
अच्छा लगता है।

~ सूफी बेनाम




तजवीज़ - contemplation इस्तिदा - invocation; आज़ान - call

हालत-ए-तहव्वुर

हम रुके रहते हैं
इत्मिनान से, खुद बनकर
जब आती है वो
तो ज़िन्दगी ले के आती है।

जब जाती है वो तो
खुद के साथ को
तन्हा क्यों कहें ?
समझो इंतज़ार सा छोड़ के जाती है।

दर्द क्या है तड़प क्यूँ है
तुम ही समझो।

~ सूफी बेनाम

तहव्वुर - boldness


Monday, October 27, 2014

सुरूर

कई बार
मुझे
बे-लिखे पन्ने मिलते हैं
कागज़ों के गट्ठरों में दबे हुए
कोरे से दिखते हैं
या
शायद इनके हक़ में
कुछ ऐसा है जो मैं
ख़्याल में नहीं उतार पाया
जो दब हुआ शायद अब भी है
मायूस किसी कोने में
जो अब झिझकता है
ज़हन पे उभरने से
पर सुरूर सा देता है ।

~ सूफी बेनाम


आज मेरे राम घर लौट आयेँगे

घर घर दिया रोली रंगोली है
नये कपड़े नयी सी खुशबू
नया सा मौसम है
..........
आज मेरे राम घर लौट आयेँगे।

~ सूफी बेनाम


Saturday, October 25, 2014

पकी -मिट्टी के दिये

कुछ पल ही लगे थे
भीगी गुंथी हुई
कच्ची-मिट्टी को
कुम्हार के हाथ कि
सुगढ़-सुनारी अँगुलियों ने
चाक की अथक-बेरुक रफ़्तार से
कुछ कच्चे दिये बनाये थे।

नीम की ठण्डी छाओं में
सुखाया था इनको
कुछ दिये वहीँ पे टूटे आशिक़ से
बस पसरे और बिखर गये।
कुछ दिये, शायर, हम से थे
पकने को तैयार बहुत।
हयात की तपिश थी
शायर दिये पुख्ता हुऐ।

आज शाम कुछ देर को
नन्हीं सी लौ को रिझाने को
तेल और बाती से हम
सजाये जायेंगे।
घर का हर अँधेरा कोना
छत और तुलसी की छाओं
यहाँ कुछ देर को जलेंगे अपने हिस्से में
तुम्हारी दीवाली मानाने को।

हम जले हुऐ चिराग की मिट्टी
किसी की भी दीवाली को
दोबारा काम नहीं आती।
इस पके हुऐ पुख्ता बदन को
मिट्टी में मिलाना
सदियों की मशक्कत है।
किसी एक दिन को इतना रोशन किया
कि सब दिन इंतज़ार में निकल गये।

~ सूफी बेनाम


Wednesday, October 22, 2014

अंगूर के दाने

अंगूर  के आकर्षक रंग-बिरंगे  दाने 
बेस्वाद सी बाहरी खाल में दबी 
ग़ज़ब सी मिठास-भरा रसीला गूदा 
दांत से दबाया तो रस ही रस था। 

थोड़ा और चबाया, चखा तो 
ज़ायके की खोज  बीज तक पहुंची 
बीज था बेस्वाद सा  
या मैं सवाब नहीं समझ पाया। 

~ सूफी बेनाम



Thursday, October 16, 2014

सुकून -ए -क़लब

गर मर्ज़ सा है अंदाज़ शोखे ज़िन्दगी का
है कुछ देर को ही उफनना-तड़पना इसका
फिर जाने कैसे समझूँ  बेमर्ज़ क्या है यहाँ
इस मर्ज़-ए -लिबास में हैं कैद जबतक।

ये इकरार में तकरार का निखरता खेल कैसे
है दोस्ती में दुश्मन के जिस्म की मैल कैसे
समझना चाहता हूँ रिश्तों में दबी ज़रूरतों को
तफ़री लेती हैं चाहतें करवट बदल -बदल के।

ए सफ़ीर! है शुमार की हदद में सितम का आलम यहाँ
पर बेइन्तहां नशीले है होंठों पे रंग यहाँ कातिलों के
बेमर्म सा शोबादाह है, लम्स की फितरत
सुकून-ए-क़ल्ब है महज़ अब सिलवटों में।

~ सूफी बेनाम




शोबादाह - mire-able; शोखी - wantonness ;  सफ़ीर - ambassador; सुकून-ए-क़ल्ब - peace of heart. 

Thursday, October 9, 2014

जैसे कोई पुराना घर हो

वो
अचानक ऐसे
मिली थी मुझसे जैसे
सालों बाद कोई
अपने पुराने घर को
देख कर कुछ देर
रुक गया हो।

कुछ
पोशीदा सी नज़रें
ऐसे टिकी थीं मुझपे
और ओट ले रहीं थीं
जैसे
दरवाज़ा किसी दीवार पर
जा टिका हो।

मैं भी
बेदम सा रुका रहा
जैसे
हो बोझल सा कोई
सूना कमरा
धूल की चादर में
लिपटा हुआ।

आज
हाथ बहुत ही
खाली थे
जैसे
यादों की कड़ियों में
न तारिख
और न पता हो घर का।

वो
रुकी नहीं या
चली गयी।
आयी भी थी
ये मालूम नहीं
बस एहसास
महज़ कुछ ऐसा था।

~ सूफी बेनाम





Wednesday, October 8, 2014

इमली -कोठी

मुनासिब नहीं था लौटना उसका
पर वजूद की खोज इब्तिदा से इन्तेहाँ तक थी।
उसकी हसरत -ज़दा नज़रों में तड़प थी,
शायद जीने का करीना जानती थी वो।

न जाने क्यूँ एक बार के लिए ही सही,
अपने भूले-गुज़रे  घर ले जाना चाहती थी वो।
मुझे दिखाना चाहती थी बचपन अपना
या खोए गुज़िश्ता से मिलाना चाहती थी वो।

और गया था मैं, यादों के शहर - हज़ारीबाग़
शायद जहाँ का आसमां तसव्वुर की हद छूता था।
जहाँ की तंग,  झिझकती, गुमसुम गालियां
तालाब के किनारे कच्चे घरों तक ही पहुँचती थी।

कहानियां जहां राजा के महल और शिकारगाह की
शहर के कोने में , जंगल की कछार पर बिखरी थीं।
सहमे -उजड़े से घरोंदों के पेड़ों से ढके चेहरे
इन सबको अपने दोस्तों का घर बताती थी वो।

इमली -कोठी की सड़कें तब से कच्ची ही रहीं
जहाँ के इंसान समय पे है नहीं फ़िरते - बदलते
गैर- मुत्ताबद्दल होती है किस्मत उन बसेरों की
शायद इतना ही कहना चाहता था ये सफर मेरा।

साथ उसके रहा और देखा - महसूस किया
शायद उसके बचपन को था मैं कहीं छू सा रहा।
या महोब्बत आइन्दा मुक़ाम से, बिसरी दीवारों से मिलने आयी थी
शायद वक़्त ठहरा हुआ था और गुज़र गयी थी वो।

……  फिर वो सफर भर बेहिस सी रही।

~ सूफी बेनाम

इब्तिदा - begining ; इन्तेहाँ - end ;  गुज़िश्ता - past ; गैर- मुत्ताबद्दल - unchanged ; आइन्दा- future



Sunday, September 28, 2014

पहचान

मैने कल -कल झूमती ताज़ा लहरों को
बीच दरिया , एक सिल-ए -जबाल की छाती के
मदहोश -ख्यालों में उलझे हुए देखा था।
बार-बार बहाव का बहाना ले आती थीं मौजें
अपने जिस्म से उस चट्टान को डुबोती
खुद टूटती- छीतराती और बिखर जाती थीं।

मैं जानता हूँ, वो कुछ देर तो ठहराव लाया था
कुछ देर तो उस आज़ाद -ताज़ा
तीरे की मस्त-मादक लहरों का शबाब
तड़पा था, उलझा था, छटपटाया था।
पर बह गया वह, गिरफ़्त छुड़ाकर
और बहाव की बेसाध मजनूनी में रेत हो गया।

न जाने क्यूँ डूब रहा था
समुन्दर में पिघलकर वो दरिया
ना जाने क्यूँ अथार रेतीले आशार भी
साथ बहा लाया था    
ना जाने क्यूँ रोक नहीं सिल -ए -जबाल को
उस ताज़े दरिया ने, अपनी आगोश में।

आज सागर के रेतीले तल के वीराने का
एक नशीला, खुद-फ़रोश,
शायराना मिज़ाज़, बदमस्त ज़र्रा
बेहिसाब बिखरी रेत में टूटा हुआ
अपने शाह-ज़ोर जबाल को याद करता है
अपनी पहचान ढूंढ़ता है।

~ सूफी बेनाम



शाह-ज़ोर - robust ; खुद-फ़रोश - self -obsessed ; जबाल - mountain ; सिल - stone ; शबाब- youthfulness; मजनूनी - madness ; आशार- remains। 

Sunday, September 7, 2014

नयी कलम

कहती ही नहीं है वो
जो मैं बताना चाहता हूँ।
क्यूँ एक नयी कलम  को
बांधने की कोशिश कर रहा हूँ ?

रहती तो है हाथ में मेरे,
और मेरे ही सूने लम्हों को
कोरे काग़ज़ो पे साकार करती है।
फिर मनचली सी  क्यूँ  है वो ?

कभी नोक इसकी भागती सी है
कभी बेइज़ज़त बहती है नुक्तों पर ।
क्यूँ स्याह डूबे अंधे-अक्षरों को
बेहिसाब तड़पती है वो ?

पर शायद अफरीदगार भी
पूरी कोशिश नहीं करता
गिरफ़्त अंगुलियों की
मुशफ़िक सी, कमज़ोर सी है।

सोचता हूँ कुछ देर इस
नयी कलम को रख दूँ
और गोदना बंद करूँ
अनकही, कोरे कागज़ों पर ।

पर बगैर मेरी अंगुलियों के
बेमतलब सी अधूरी सी है वो।

~ सूफी बेनाम



मुशफ़िक - compassionate; अफरीदगार - Lord, God.

गहरी-नींद

कुछ अपनी आदत  से
या महज़ सामान ढूंढने को
या फिर यूं ही थक कर के
तुम आते थे दो पल को।

दिखता नहीं था कभी चेहरा तुम्हारा
पर शायद तुम्हें मैं -से जानता हूँ
न जाने कितने रिश्तों-रंजिशों से बने हो
फिर भी अपनी चाहत से पहचानता हूँ।

रात गहरी नींद में था मैं सोया
बार-बार दरवाज़ा खुल रहा था
नींद टूटती दो-पल हर बार मेरी
शायद तुम आते थे।

~ सूफी बेनाम


Friday, September 5, 2014

कशिश

इस कशिश से ज़िंदगी की तरन्नुम
कुछ फ़ीका सी,  शरमाया सी  है।

कोई नश्तर फिर नया आज़माओ
दर्द की धीगें अब बूढ़ी हो रही हैं।

क्यूँ दुहाई बेवफाई की जहांपर
सुरमयी रस्में कहानी हो चुकी हैं।

तेरी दोस्ती, मेरी चाहत की ये अर्ज़ी
महज़ एक नाजायज़ रस्म सी है।

कसमें अपनी जवानी खो चुकी हैं
ये नज़ाकत अब रवानी खो चुकी है।

सुबह की थीं, बेपरवाह मियादों की दरारें,
जिनमें सरक कर दफन थे स्वप्न अधूरे।

आज अंजोर से पहले जाग करके
खुली आँखों में उन्हें हैं घोलकर बहलाते ।

सिर्फ दर्द से ज़िंदगी का एहसास
कुछ काम है।

~ सूफी बेनाम









हाउस वाईफ (house-wife )

कई बार ऐसा होता है
कि तुम घर तो पहुँचते हो
पर बाहर के होकर ही
रह जाते हो।
मैंने देखा है,
सुबह भी,
मन बाहर का होता है;
और फिर उस बाहर की दुनिया में
वापस यूं चले जाते हो
जैसे शाम को घर आओगे।

~ सूफी बेनाम


Tuesday, July 8, 2014

नशा

पी लो , नशा कर लो,
वरना होश में रह जाओगे
जब सिमटेगी शाम
बेहिश्त बेताब बाँहों में,
खुद के करीब ही रह जाओगे।

थोड़ा खुद को घोलो,
खोना सीखो घुल कर के
वरना अहम् का वो टुकड़ा
जिसको अपने नाम से जानते हो
उसके दायरे में बंधे रह जाओगे।

पी लो , नशा कर लो,
वरना होश में रह जाओगे
इतना बुरा भी नहीं है
खुद से बिछड़ना और
बिखरना कुछ पल को।

~ सूफी बेनाम


बेहिश्त - heavenly.

Wednesday, May 7, 2014

कैसे कलम से रिश्ता जोडूं जज़्ब का ....

कैसी बंधी सी कलम है ये
सिर्फ कागज़ पर चलती है
शब्दों में कहती है और
हर जज़्ब को सिर्फ़ अलफ़ाज़ हैं।

देखा मैंने कि जज़्बात मेरे
इतने सुलझे कभी नहीं थे कि
उनको किसी ज़ुबान या अलफ़ाज़ से
बंधता - पिरोता या समझ पाता।

पंछिओं से बेचैन - परेशां  उड़ते रहे
कभी दाने को कभी गुनगुनाने को
आज़ाद  ये जज़बात बहते रहे
आसमां कि तहों में धारती के करीब।

जब भी गूंथा मिसरों के जोड़ों को
खुद से पहचान मुश्किल थी मेरी
सोचता हूँ इन्हें आज़ाद ही छोड़ दूँ
शायद पहचान बने कोई।

~ सूफी बेनाम


Sunday, April 27, 2014

शरारती नज़्म

वो  कहती ही नहीं थी
जो मैं उससे कई बार
सुन्ना चाहता था
उसकी पहचान
दर्ज़ कराना चाहता था।

लम्बी मुस्कराहटें
खर्च हुई हर बार
- कुछ ज़ाहिर ना हुआ
पर ये जज़बात उसको
बेचैन ज़रूर करते रहे

अधलिखा सा आज मैंने उसको
फिर फिर गुनगुनाया
खोखला- अधूरा  कर गयी थी वो।
इसलिए आज उस नज़्म से
मैंने दोस्ती तोड़ दी।

~ सूफी बेनाम

(This is Anjora's photograph. We are great friends. The photo is representative of a childlike innocence of poetry that I cannot understand)

Monday, April 21, 2014

algebra सी तुम

तुम बिलकुल algebra सी लगती हो
जिसे 8th में मैं पढ़ नहीं पाया,
जहाँ मेरी पिछले सालों की पढ़ाई
पूरी fail हो जाती है
आज तक उस x की value ढूंढता हूँ
तुम बिलकुल algebra सी लगती हो

equation बदलती गयी
तुम धीरे -धीरे  bionomial बानी
फिर bionomial से trinomial हो गयी
इस x  के आगे y और z  भी लग गये हैं।
मेरी गण्डित अब भी कोशिश में है
की कुछ तो कभी सुलझेगा।
तुम बिलकुल algebra सी लगती हो।

गण्डित के सुख़नवरों ने
कुछ theorem बनाये हैं।
कुछ formulae हैं तुम्हें solve करने के।
हर बार कुंजी से रट के जाता हूँ
हर बार apply नहीं कर पाता।
तुम बिलकुल algebra सी लगती हो।

तुम्हारी गण्डित में
minus minus मिलके plus होता है
plus plus भी plus होता  है
अजब बिठाया है हिसाब तुमने
अब कुछ तो solve करवाओ
सिर्फ सवाल बन के न रह जाओ
अच्छा x  की value तो बताओ।

सोचा था इस game को
calculus से निबटाऊंगा
differentiation के बाद इंटीग्रेशन बिठाऊंगा
पर इतने साल नहीं हैं पास मेरे
maths से मन ऊब चूका है।
तुम बिलकुल algebra सी लगती हो
अच्छा x  की value तो बताओ।

~ सूफी बेनाम





Thursday, April 10, 2014

एक ख्याल, बुनदा - बुनदा सा

कैसे रहा ज़ुल्फ़ की
तहरीर में गुम
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।
कभी - कभी झांकता है
नज़र आता है
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

काक के कोहराम सी
बेसाध लटें
उलझी हुई तश्बीहों को बुन
नज़र को मूंद चुकी थीं लेकिन
फिर भी कानों में
छनकता है
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

सांसो की स्याही को
जिस्म की दवात पर
बार-बार बे-लिखे डुबोया
बेबसी में कुछ ढूंढने को
पलकों के कोरेपन पे
अनकही कुछ गूंथ रहा था
एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

तेरी ज़ुल्फ़ों की
भटकी हुई गलियाँ
मेरे जिस्म के
भूले हुए दयरो से
गुज़रा करती हैं
इन गलियों के बेसाध सायों में
छनकता है एक ख्याल
बुनदा - बुनदा सा।

~ सूफी बेनाम


Monday, April 7, 2014

मेरी ! सिर्फ़ मेरी !

कुछ चीज़ें हैं
जो मेरी हैं  !
सिर्फ़ मेरी !
जैसे मेरा चाय का गिलास
मेरा तकिया
मेरा पेन
मेरी टेबल-कुर्सी घर
मेरी फैवरिट टी-शर्ट
सुबह का पहर,
और पानी का पाइप
जो चीज़ें सिर्फ़  मेरी हैं
मूक हैं
जड़ हैं।
शायद मेरा होने के लिए
ये ज़रूरी है।

~ सूफी बेनाम


Friday, February 28, 2014

फ़ितूर

कैसा ख़ासाक सा है जीने का फ़ितूर
यहाँ सूखे पत्ते भी गर्द में
ज़िन्दगी से  पहचान  की
उम्मीद से घूमते हैं।

जहाँ मेरे काबिज़ नहीं
आसमां और ज़मीं
उस जहान में मैं  ढूंढ़ता हूँ
वो शकल जो मेरी हो।

यूं ही किसी क़ातिब ने
लिख दिया है नाम मेरा
इस जिस्म पर जो आज
मुझे ढाक कर के झूमता है।

खासियत ये रही इस दौर की
खाफगी कितनी भी रही
खला से ज़मी तक
हर ज़र्रा नायब सा है।

हर शक्ल एक सी है
बस नक्श बदलते रहे

नाम बदलते रहे तवारीख़ में।

~ सूफी बेनाम।



तवारीख़ - register ; खाफगी - anger; क़ातिब - scribe ; काबिज़ - in control ; ख़ासाक - trash

जवाब कभी नहीं मिलता

पर, कई बार मैं पूछता हूँ
खुद से,
कि आदत इतनी
खराब क्यूँ है मेरी ?

अहम् और
जीने की चाह
मुझे आगे कुरेदने से
रोकती है।

महज़ कुछ आदतें
काफी नहीं थीं,
मेरे अंदर, दवंद को
जगाने को पुख्ता नहीं थीं।

~ सूफी बेनाम


Friday, February 21, 2014

मुश्त-ए-खाक़

एक याकूत सा गुलाम है
मेरा मुश्त-ए-खाक़ इस जहां के
बेलकीर, बेगाने से सफ़र में
शौक-ए-रज़िया को ढूँढता है।

है मोहब्बत जज़्ब सिर्फ
हुकूमत वालों का और
इश्क़ है किया जाता ग़ुलामी में
बेगार बनकर।

न रही सल्तनतें
न रज़िया न शौक-ए-शमशीर
ये बदन में दौड़ता लहू
अब किस काम का है ?

हर रोज़ एक नये दर्द की
ओट लेकर खड़े हो जाते हैं
ए बेनज़ीर कुछ देर और जीना को
बहाना तो दे।

~ सूफी बेनाम





याकूत - Jamal ud din Yakut ( Slave of Razia Sultan) ; मुश्त-ए-खाक़ - Handful of dust/ human being ; बेनज़ीर - incomparable ; शौक-ए-रज़िया  - a woman who can enslave a man.

एक साड़ी में लपेट लिया

एक साड़ी में लपेट लिया
पूरी शाम को तुमने
हम सब बारी बारी से आते थे
तुम्हारे पास कभी छूने- चिपकने
कभी तुम्हारे स्पर्श को।

उधड़न जो तुम्हारे
ब्लाउज और बदन के बीच
से मिठास छलकाती  है
जज़्बात जगती है और  बेमर्म
मेरी नज़रों को चिकोटती रहती है।

नीचे से झलकते तुम्हारे
कागज़ी पाओं में लिपटी
नाज़ुक सी बिछिया, पायल
गले में कंचन, कुण्डल
और सुर्ख रंग का श्रृंगार।

ना जाने अब और क्या चाहती हो मुझसे ?

~ सूफी बेनाम



Tuesday, February 18, 2014

ऐसा देखा गया है

ऐसा देखा गया है
जब भी कोई अंजाना सा
नया मौसम, नया दर्द
उम्मीद में जगता है
तो फँस जाता है
रूंध के, बादलों में।

अराइशों के,
इस पतझड़ में,
किसी फितरती चाह
या उम्मीद को,
जब दो आँखें मिलती हैं
तो शबनम की कुछ बूँदें
मोती बनकर खिलती हैं
कुछ  सूख  जाती हैं,
या ढलक जाती हैं - टीस में।

कुछ जो संजो के रक्खी हैं,
सदफ़ - ए - तवक्क़ो में
मोती बनकर शायद कभी
किसीके आभूषण को
कबूल हों  ।

~ सूफी बेनाम




अराइशों - images ; सदफ़ - shell  ;  तवक्क़ो - expectation,hope

Saturday, February 15, 2014

जाने किसके साथ तुम रहती हो ?

जिसके साथ तुम रहती हो
वो कुछ कुछ मेरे जैसा है
जिसको चाहती हो दिलो जान से
और हर दिनों-दोपहर जिसके करीब
बीत रहे हैं हर मौसम
जो तुमको अच्छा लगता है
वो कुछ कुछ मेरे जैसा है।

कभी कहीं पर हम दोनों एक से थे
वो तुम्हारे साथ चला गया
मुझको भी एक बेनाम कि छत है।
मिलता नहीं है अब मुझसे वो
जो कुछ कुछ मेरे जैसा है
तुम्हारे प्यार में वो खोया है
जो कुछ कुछ मेरे जैसा है।

~ सूफी बेनाम






तरकश

मय के प्यालों की
बंद अलमारी के से
तलफ्फुज़ का सा
बदमस्त हसीन चेहरा।

तुम्हारे होंठ बड़े भी थे
कुछ कहने को
पर कान के बूंदों से
छनकती आवाज़
की ना मंज़ूरी पे रुके
झिझके और बिखर कर
मुस्कुरा दिए।

आँखों की तरकश में
जहाँ तने रहते थे
तीर काजल के
वहाँ पुतलियों की
कमानियां हताश किसी
ख्याल में खोयी हुई हैं।

उम्मीद है ये
मुस्कराहट बनी रहे
न सही मेरी आँखों को;
किसी के होठों को
तस्सली तो है।

~ सूफी बेनाम





तलफ्फुज़ - expression    ;बदमस्त - intoxicated

Thursday, February 13, 2014

वो कौन है, जिसे लोग, मेरे नाम से जानते हैं ?

अपनी हसरतों से अक्सर ही
मैं पूछता हूँ
वो कौन है, जिसे लोग
मेरे नाम से जानते हैं ?

कुछ जो आये भी करीब भी
इन अधूरे से जज़बातों के
एक बेनाम शक़्ल से मिल कर
लौट गये।

हर रोज़ गहरी हो रही है
हक़ीक़त और वज़ूद की दरार
न जाने किस ज़िक्र पे
ये भर पायेगी।

~ सूफी बेनाम


Tuesday, January 21, 2014

शाम

रफ्ता - रफ्ता - आहिस्ता  …
कुछ देर को रुकी तो थी,
वो शाम तुम्हारे इंतज़ार को
पर सिर्फ अपनी ख्वाईश पर
उसे रोक न पाया।

वो लौट के आती भी रही
हर रोज़ उसी पहर पर
पर शायद तुम वो दिन
बिता न पाये जहाँ हम
तुमको छोड़ आये थे।

आज भी शाम मेरे सामने
एक बंद ताबूत सा लेकर बैठी है
उसमें उलझे टूटे से
कुछ अधलिखे मिसरे बिखरे हैं
अब इनको पिरो नहीं पाता।

उलझन उन अंधेरों की है
या दिन कि तहक़ीक़,
देखा तो है हर तारिख पर
एक नये दिन को रात का
हाथ थामने को बढ़ते हर शाम को।

~ सूफी बेनाम


Wednesday, January 15, 2014

बूचड़खाना

मेरे कसाई को मालूम है
जिस्म का कौन सा हिस्सा
किस काम का है।

और क्यूँ न हो
कटे हुऐ बदन को
बोटियों में बदलना
खाल को करीने से उतारना
अंतड़ियों को बाहर फेंकना
गुर्दे - कलेजी पे लगी चर्बी को
छीलना , साफ़ करना
रान और चाप की नज़ाकत
वो खूब समझता है।

मेरे रक्त-रेज़-क़ातिल
इस पेशे में, एक हुनर से
कला में पहचाना गया है।
इसी से मेरे कसाई की
दुकान चलती है।

किसे पता था
खुले खलिहानों और
नम हरी दूब
पेड़ों की छाओं में
कूदें लगाते ये साल,
किसी दगा से
मेरे खरीदार के नाज़ के लिए
कभी ईद , होली, दिवाली को
कुछ गोश्त की बोटियों में
पहचानी जाएंगी।

~ सूफी बेनाम