Thursday, April 25, 2013

बेखबर - बंदगी


न डगर रही न ही रही अब घर की तलाश,
न जिये कभी, न ही किसी पे मर के जले,
न मुड़ सके, न ही किसी मंजिल को फले,
न रुके कभी, न ही किसी सफ़र पे चले,
न खुद से जिये, न किसी पलकों पे पले,
क्यों बेचैन हैं इस ज़िन्दगी के चोले में ?
बेकरारी का कोई तो मुक़ाम होगा?
ज़िन्दगी की अनगिनित साँसों में ..
कहीं तो मेरा हिस्सा बयां होगा ?
बेखबर खुद से हैं हर गली- हिंडोले में ?
कहाँ खोये है कोई तो जगा लो हमको ..
कहूं कैसे खुद से कि कुछ तो कर-गुजरें?
ए ख़ू--यार थोडा तो तरस खाओ।

~ सूफीबेनाम




रात



उस करवट क्यों पड़े हो
ज़रा तो करीब आओ
इस करवट हम हैं यहाँ
थोडा तो बदल जाओ।

बिस्तर में फासले तो कभी भी
बढ़ ना पायेंगे।
उम्मीदों, गिलों, शिकवों को जगह
इतनी देदो यार।

पास पड़े इस बदन से
थोडा सा तो लिपटकर देखो
अँधेरे यह रास्ते अजीब हैं
थोडा मुझमे सिमट जाओ।

कुछ इल्जामो का लहू कालिख की तरह
चिपका है नज़र पर
अब एहसास तुम्हारा ही बाकी है
अपनी मुस्कराहट से रास्ता दिखाओ

उस करवट क्यों पड़े हो
ज़रा तो करीब आओ …....


~ सूफी बेनाम .




हरश्रृंगार


अवर्तमान आदित्य के संयोग से
शरद ऋतू के आगमन पर
शीत ऋतू का विज्ञापन सा लेकर
हजारों दीयों के से टिमटिमाते
हरश्रृंगार के यह फूल
तुम्हारे साथ की खुशबु पा कर
मेरे अंतर मन में बस से गए हैं

अक्सर ही मेरा मन
व्याकुल हो जाता है हरश्रृंगार के इस अभ्यास से
जीवन-दिन का उजाला जब लुप्त हो जाता है
तो शायद अपने लिए ही या उजाले के आभाव को मिटाने
यह फूल खिलते हैं और चढ़ती हुई लालिमा को प्रणाम करके
बिखर जाते है।








शार्ट- सर्किट




5 एम्पेयर की करंट  पर चलने वाला
एक रिश्ता
अचानक  15  एम्पेयर  की  मांग  
कर  बैठा  है
शांत पड़े तार  भी इसकी
ज़रुरत  से बार  बार  
गरम  हो जाते हैं 
कांपने लगते  हैं
दीवारों  की छुपी  हुई  
झीरिओं  में  बंद
यह  तार बेपसीना हुए
सुलग  रहे  हैं
एम . सी  . बी  . भी  लगातार  
ट्रिप  हो रहा है
मै  बहुत  कोशिश  कर  रहा  हूँ  पर
रौशनी  थम  नहीं  पा  रही  है
बिजली  चली  जाती  है।

~  सूफी  बेनाम .





शक्लें

अब तो यह वाकिया,
कुछ ऐसा  ही रहेगा
किसी बेपनाह बेबाप की  सी  
नज़र से दुनिया देखेंगे ,
और हर मोड़ पर तुम्हारा ज़िक्र
मेरे महबूब करेंगे
अब तो यह वाकिया,
कुछ ऐसा  ही रहेगा
माना  कि  ज़िन्दगी  ने कोई
इलज़ाम  न दिया
पर न ही मज़हबे-ए -पाक  दिया
और न हि  जूनून - ए - फरहाद
हम तो बेबस  ही रहे
सांसों  के  हॊने और
न हॊने के बीच।
अब तो यह वाकिया,
कुछ ऐसा  ही रहेगा
हर  किसी  मोड़  पे
हम  फिर  मिलेंगे
रेत  के  अबार  पर  बेवजह
बिछी  सबा  की  तरह
बेसब्र, बेवजूद  बस
महज़  कुछ  पल  के  लिए
शक्लें बदलती  रहीं
पर कुछ भी अधूरा तो नहीं
अब तो यह वाकिया,
कुछ ऐसा  ही रहेगा।


~  सूफी  बेनाम



योगी की माया


बहुत बेतुकी जीवन की है।
अदभुत सी है ये माया।
असमंजस में आज फंसा हूँ,
अनुरागी का भाव लिये।
योग वियोग से जीवन सजता
ब्रह्म-मलय सी है माया।
लोग मिले, संजोग सजे,
कलको, आज बिगड़ने को ?
आज नहीं जो कल था मेरा 
जो आज मिले संजोग सजे।

अनुरागी का जीवन सजता 
राग,  वैराग्य और द्वेष लिए।
आनंदित होने को व्याकुल,
अनुरागी की यह काया।
अनुरागी सा जीवन मेरा 
वितरागी उपदेश गहे ?
समय नहीं था इस को समझूं 
समय नहीं कुछ कान करूं।
संभव है कुछ कर गुज़ारूंगा 
संभव जग माया को समझूं।

पर एक तरफ था युग का साया 
और एक तरफ योगी की माया।

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मेरे मन का सूनापन



कल मैं बहुत खेली  थी .
मेरी छुट्टी थी
माँ भी नहीं थी
पापा भी कहीं थे
थी बस एक बहन, जो मुझ सि बंधी थी
और मुझ से जुड़ी  थी
दादी के साए से पली
बाबा की कहानियों में बड़े हुए थे
हमारे बचपन के दिन .

पर शायद माँ होतीं तो
 रात के पहले पाँव धुलवाती   .
या पापा होते तो सोते ही मेरे पैर
पोछे जाते , और मैं सोने का नाटक कर करवट बदलती
कल मैं बहुत खेली  थी .
मेरी छुट्टी थी
माँ भी नहीं थी
पापा भी कहीं थे.


परोक्ष


उस सर्दसुनसान रात की 
अविज्ञ नीरस-सूनी तन्हाई  में
जिसको मेरी अयोग्य आँखों ने  
अपनी साधुता से – आग समझा
वह तो अँधेरे से साए से ढके 
एक निष्ठुर अधीर दरिया में 
दूर निरुत्साहिक रोशनी की 
चंचल-मोहक प्रतिबिम्ब थी।
सत्य-सचेत हो कर भी 
मै अपनी बेबसी में 
उस ओर देखता रहा,
और आँखों में झलकी गर्मी से 
ठंडी हवा के भेदन को सराहा। 
आज न जाने क्यों 
इस बात की कचोट है कि 
मेरे पहचानने की शक्ति 
रंगों में ढकी हुई है 
मेरे समझने का बूता 
सपनों से रंगा हुआ है।
एक जगत  है जिसमे 
मै ज़िन्दा  हूँ और 
एक परोक्ष वजह  है जो 
सांसों में आस बनाये रखती है।
सूफीबेनाम  



क्यों बेसब्र हो रहे हो ?



रात धुली है, दिन चढ़ेगा,
फिर वही आलम पुराना ..
शाम तक दम तोड़ देगा 
क्यों बेसब्र हो रहे हो ?

नाम रखके क्यों चले हैं ,
यह मैला चोल पुराना 
कल कहीं साथ छोड़ देगा 
क्यों बेसब्र हो रहे हो ?

सज रहा है फिर से देखो 
आसमा में तूफानी बहाना 
विनाश का यह रंग पुराना 
क्यों बेसब्र हो रहे हो ?

तुमने जो तिनके बटोरे 
राह बिखरे फूल गॊये 
एक मंदिर पर सब साथ छोड़ देगा 
क्यों बेसब्र हो रहे हो ?

राहगीरों को रिश्तॊ का नाम दे 
जीने का बहाना पुराना 
फिर तुम्हारा दिल तोड़ देगा 
क्यों बेसब्र हो रहे हो ?

~ सूफीबेनाम 


कुफ्र (Impiety ie lack of reverence)




रात में, काले बादलों पे,
तारों की चादर
या होती है, या नहीं होती।
या तो चाँद के  चरों ऒर,
शरमाये टिमटिमाते तारे,
दिखते हैं या फिर
किसी बदल या धुए की परत से
ढक जाते हैं।


अब यूं ही चाहूं कि बस
एक तारा टिमटिमाये
तो ऐसा नहीं हो पाया
कभी भी इस  आज़ाद
खुले  आसमान में
चाहत का बस एक ही तारा न खिला
हाँ रात की बदली में यह कोहरे से
कभी ऐसा हो पाया।


रात तो खुशनुमा थी
और खुशगवार भी
मैंने कई बार चाहा
इस साफ़ आसमानी  रात  को
चादर में मुह  ढक के
सो  जाऊं
पर  क्या   करूं
इस  टूटे  हुए  जिस्म  को ?
बदलती करवट पर कम्बल
सरक  ही जाता   है।
या कभी  कम्बल  बंधी सांसों  में
उलझ  कर
पहले आँखों से  ढलकता  है
और  यूं  ही
हर  बार  की तरह यह  टिमटिमाता  गगन
फिर  मेरी  नज़रों  पे  खिल उठता  है।


~  सूफी  बेनाम




Wednesday, April 24, 2013

अलग-अलग


क्या  करें जब  फैसले  फासला  बढायें,
बदलने  की चाह  मुझमे  भी  है  पर थोड़ी अलग-अलग
है  हर  उम्र  की  परवाज़  अलग-अलग
हर  होने  का  है  सार  अलग-अलग
हर  मुद्दई  की  फ़रियाद  अलग-अलग
है  हर  रूह की  आवाज़  अलग-अलग
जीने  में  कोई  साथ  कैसा ?
जब  हो रहा है  हरेक का  इम्तेहान  अलग-अलग
है  हर दर्द की पुकार  अलग-अलग
तुम साथ में सॊये  हो पर
 तो वक़्त एक हमारा,
और ही फ़रियाद का मुकाम
कैसे  साथ में  जियेंगे  जब
है  हमारे जिस्म--जान  की  तमन्ना अलग-अलग
जो  यूं  मुलाक़ात  को जाती  है गर
घर  में  और  बिस्तरों  में
महोब्बत  में  घुलें  है फिर भी  देखो
है  एक  ही प्यार की  शक्लें अलग-अलग
है  हर  प्यार  का  सच  अलग-अलग
उठती  है हमारे  रूह  से महताब अलग-अलग


~  सूफी  बेनाम


सूफी बेनाम का एक कलाम



हर मोड़ पे ले रही  है तुम्हारा नाम ज़िन्दगी
फिर से हो रही है बदनाम ज़िन्दगी.

इस जिद से निकले थे तुम्हारा शब् हम तोड़ेंगे
तुमको ही ढूँढती है हर शाम ज़िन्दगी.

कोई तो कह रहा था मेरा सब्र झूठा है
ले यूं ही चल रही है तेरा नाम ज़िन्दगी??

ख़्वाबों में जी लेने दो कहीं जाग गए तो
तुम्हारे ही दर पे होगी बेनकाब ज़िन्दगी

जिस रात को हम बेखौफ बेदाग़ सोये थे
उस रात हो रही थी बदनाम ज़िन्दगी

थे तुमको छोड़ कर हम कुछ आगे आ गए
पर यह घुमावदार रास्ते फिर तुम तक पहुँच गए.

कोई जो चल रहा है ... कहीं पहुंच जाएगा
है रुकी रुकी सी, परेशान सी, इक आम ज़िन्दगी

कब पहूँचेंगे कहाँ  या यूं ही चलते जाना है ??
किसी की तो है ज़रूर गुनेहगार ज़िन्दगी .

मौजों से खेलते रहोगे या उस पार जाना है ??
या कह दो किनारों से है परेशान ज़िन्दगी .

कहते हैं दर्द इ दिल की कोई दवा नहीं...
ये मेरी मोहब्बत है कोई दुआ नहीं .

थी शबनम की वो बूँदें या कई ख्वाब टूटे से ??
जाने क्यूं थी उल्फात में भी बेकरार ज़िन्दगी..

आओ तुमको लिखें फिर पढ़ लिया करें
क्या जाने तावज्ज़ु क्या है बेक़रार बंदगी

ये तुम्हारा फरेब-ए-नज़र है या कोई हादसा ग़ज़ब
पाते हैं तुमको हर दम में बेदम हुए पड़े .

इस कायनात पर कोई  क्या इन्हिसार करे  .
फिर भी है मुकम्मल  बेशाम  ज़िन्दगी .

हैरान तो बहुत  हैं पर बेनाम क्या करे
चादर सी ओढ़े सो रही है आज  ज़िन्दगी.

हर मोड़ पे ले रही है तुम्हारा नाम ज़िन्दगी
है जल रही बेख़ौफ़ बेनाम ज़िन्दगी .

~ सूफी बेनाम 





मुक़ाम

इस धुँएं में महफूज़ हैं
कि बहुत शिद्दत से थे हम जिए .
वीरानों में झुलस कर
ख्वाबों  को हम रोज़ सजदा करते हैं .

इस धुँएं में महफूज़ हैं
हर वो शाम थे जिस पर गम सजे .
महक इबादत में उठती है
लपटों से लिपटकर खिला करती है.

इस धुँएं में महफूज़ हैं
कि बहुत शिद्दत से थे हम जिए .....

बेख़ौफ़ बढता चल रहा था
शोलों पर यह कारवां.
बेफिक्र सहर पर बिछी है
राख इसकी ऐ बेखबर.

एक अनकही टीस है
उससे सुलगकर लिपटकर
बेनाम नाबालिग-मोहब्बत
हर शाम यहाँ एक क़र्ज़ अदा करती है.

इस धुँएं में महफूज़ हैं
महक हर उस नक्श की
जो गुलिस्तान की ख़िलाफ़त में थे खड़े,
घडी गुज़र जाने के बाद.

इस धुँएं में महफूज़ हैं
कि बहुत शिद्दत से थे हम जिए ....

~ सूफी बेनाम


दर्द


वोह दर्द ही क्या जो स्याही मे बहे
जो बेलकीर किताबों पर अंगुलिओं से कलेमा कहे 
जो शब्दों के जाल बुन कर अँगारों सा सुल्गे
जो रिसती हुई दलीलों को वजाहत से सहे  
जो तसव्वुफ़ -इ-आतिश को आस समझे 
दर्द वो है जो सीने में चुभो के रखते है 
जो की एक बेपर्वाह नशीली आरज़ू के किनारे 
इक खामोश सौदा करते हैं 
और धीरे-धीरे रिसता है .

~ सूफी बेनाम

दस्तक



कई रातें बीताई, किसी टूटे सिरे
को ढूँढने की मजबूरी में
फिर मुझे यह लगता था
सपनो से रिश्ता टूट गया है.

अचानक, रात मुझे एहसास हुआ
अकेला कोई मशरूफ है जो मुझे जगाता है
उन अनजानी दूरियों से
कोई बेनाम मुझे बुलाता है.

सुबह के उजाले के निकट
जब लहु-मय से प्याले लदते हैं
तो दिल के अन्दर से दस्तक दे
कोई कुछ कहने को आता है .

इंसानी समझ की पैमाइश से अलग
उसकी अपनी भाषा है
मै ठीक से सुन नहीं पता
कुछ  ठीक से कह नहीं पता .

~ सूफी बेनाम





महामाया मार्ग



घर से चले रास्ता मिला,
आगे चले दोराहा मिला
फिर तिराहा और आगे चौराहा.

कतार दर कतार लोग चल रहे हैं
मूक, उसूलों की कमान पर
जब भी अपनी मन की करो,
उल्लंघन करो तो
चोट लग जाती है.
कहते  हैं आगे एक्स्प्रेस्स्वय मिले गा
वहां गाड़ियाँ खुद ब खुद चलती हैं
वह महामाया मार्ग है....


मै और तुम


तुम दस्तूर ही न समझे जीवन का
और अपने सुरूर में हम,
मूड- पाखंडी, भ्रामक- अचेत
अहम् - घमंड की मूरत,
पर हम दोनों हैं वहीँ खड़े.

मनोव्यथ-चेतन, वैवेकिक-चिंतन मन में
हम दावे के साथ जागरूक-सचेत हैं
तुम सोचा ही नहीं करते
तुम बेफिक्र निरुद्देश्य मंडराते जीव-मधु की लहरों पर,
पर हम दोनों हैं वहीँ खड़े.

है उमड़ धड़क घबराहट बैचैनी
मै अंतर्मन अकुलाई .
तुम पाशविक-जीव, अमिश्रित -स्वच्छ
जीवन में हो धीर धरे
पर हम दोनों हैं वहीँ खड़े.

इस शारीर-तीर-धनुष से हम
कब मीन-चक्षु को भेदेंगे
और भेदन विजयी हो क्या द्रौपदी पा जायेंगे
इस भ्रम-निहित, अशक्त-अर्जुन हम
हैं हम दोनों हैं वहीँ खड़े.

~ सूफी बेनाम 






मै जीया वही जो बीत गया



यह जो राख समझकर- उड़ाकर कर तुम हाथ धोते हो ?
वोह आज भी हमारी रातें खरीदने का आज़र रखती है .

2012 को मेरा सालम ...

~ सूफी बेनाम


नासिरा



एक उम्र का  फासला, 
कुछ अनकहे वादे,
ये फर्जी  दूरियाँ, 
कई  फ़तवे बेनाम  । 

एक वो मुखालिफ 
कुछ मुखबिर नज़रें,
ये  रुहानी मह्बस, 
कई मुख़्तार बेअदब ।

एक रिश्ता अधूरा,
कुछ नए ख्वाब , 
ये सुबह की खुमारी,
कई  किरदार बेफिक्र ।

एक कुतुबखाना 
कुछ नाचार कागज़ात 
ये अल्फाज़ों का ज़हर 
कई ख्वाइशें बेसुध।

एक तुम   
कुछ हम 
ये  नासिरा 
कई लम्हे बेबस ।

~ सूफी बेनाम 

किरदार - character ;कुतुबखाना - library ; नाचार - helpless; नासिरा - lie, मिथ्या, falsehood ;मुखालिफ - revolting ;मुख़्तार - free to roam; मह्बस  - jail.